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मुक्तिदाता) कहा है । इसमें अ से अरहंत, अशरीर, आचार्य, उ से उपाध्याय एवं म् से मुनि, ये परमेष्ठी गर्भित हैं । इस परमेष्ठी वाचक मन्त्र के ध्यान से दुःखरूपी ज्वाला शांत होती है।
ओं यह सर्वमान्य मन्त्र है। अतः यह एकता या संगठन का माध्यम है । इस परमात्म रूप ओं के श्रद्धावान् और आराधक परमात्मा रूप पिता की छत्रछाया में रहकर भ्रातृभाव को त्याग कर क्या परस्पर द्वेष या वैरभाव कर सकते हैं? यदि करते हैं तो उन्हें आस्तिक या सच्चा आराधक किस प्रकार कहा जा सकता है? वर्तमान में हम सबके लिए यह विचारणीय है।
ओं यह वह ब्रह्म रूप समुद्र है जिसमें सर्वधर्म रूप नदियाँ आकर मिलती हैं । यह वह गुलदस्ता है जिसे विविध धर्म रूप पुष्प एक साथ गूंथ कर उसकी शोभा बढ़ाते हैं । अनेकता में एकता, द्वैत में अद्वैत एवं भेद में अभेद का साक्षात्कार इसी ओं द्वारा संभव है। यदि हम ओं का आराधन करना चाहते हैं, धर्मात्मा बनना चाहते हैं, तो सेवा का, प्रेम का, नैतिकता का और त्याग का व्रत लेवें । पड़ौसी की भलाई समझें । आज धर्म या दर्शन को चर्चा या विवाद का विषय बनाने के बजाय उनसे मनुष्यता और सदाचार का पाठ सीखना चाहिये । हम अहंकार या परस्पर घृणा का त्याग कर सबके साथ समभाव व प्रेमपूर्वक व्यवहार करेंगे, तभी हमारा यह देश, समाज और हम जीवित रह सकेंगे। हमें ये वाक्य हमेशा याद रखने होंगे -
'उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' 'मैत्रीभाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे ।' 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना।' कुछ आवश्यक समाधान
(१) व्यंगितां जर्जरां चैव पूर्वमेव प्रतिष्ठित्ताम् । पुनर्घटितसंदिग्धां प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥
जीर्णं चातिशयोपेतं तद्विंम्बमपि पूजयेत् ।
शिरोहीनं न पूज्यं स्यात्प्रक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥ नासा मुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमंडले । स्थानेषु व्यंगितेष्वेव प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥
मानाधिका परिवार रहिता नैव पूज्यते ।
काष्ठ लेपायसंभूता प्रतिमा संप्रति न हि ॥ अंगरहित, जर्जर, पूर्व प्रतिष्ठित, दूसरी बार निर्मित,संदेहयुक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा न करें । जीर्ण हो किन्तु अतिशय वाली प्रतिमा भी पूज्य होती है। शिर रहित मूर्ति को गहरे जल में क्षेपण कर देवें । नासा, मुख, नेत्र, हृदय, नाभि रहित मूर्ति को न पूजें । उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित सौ वर्ष से ऊपर की क्षत अंग वाली मूर्ति भी पूज्य होती है। अधिक मान वाली व अष्ट प्रातिहार्य रहित मूर्ति पूज्य नहीं है और काष्ठ व मृत्तिका से निर्मित मूर्ति वर्तमान में नहीं बनाई जाती है।
(उ. श्रा.) [प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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