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आप सत् तीर्थ त्रय रत्नसे निर्मिता, भव्य लेवें शरण होय भवन भव रिता ।
कुशलसे तिरें संसृती सागरा, जाय ऊरध लहें सिद्ध सुन्दर धरा ||४|| यह समवशर्ण भवि जीव सुख पात हैं, वाणि तेरी सुनें मन यही भात हैं । नाथ दीजे हमें धर्म अमृत महा, इस विना सुख नहीं दुःख भवमें सहा ||५|| ना क्षुधा ना तृषा राग ना द्वेष है, खेद चिन्ता नहीं आर्ति ना क्लेश है । लोभ मद क्रोध माया नहीं लेश है, बंदता हूं तुम्हें तू हि परमेश है || ६ || ॐ ह्रीं श्रीऋषभादि वीरांत चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यो ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय महार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
निर्वाण भक्ति
कैलाश पर्वत की रचना करके भगवान् ऋषभदेव को ध्यानस्थ बताया जा सकता है परन्तु वे अर्हन्त अवस्था में विहार कर दिव्य ध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देते रहते हैं । विधिनायक व मूलनायक प्रतिमा अर्हत अवस्था की होने से यहाँ निर्वाण भक्ति सामान्य रूप से पढ़ें, जिससे आत्मा से परमात्मा बनने की सर्वांग रूपरेखा दर्शकों को ज्ञात हो सके। अग्नि संस्कार करना उचित नहीं है ।
निर्वाण भक्तिरेव निर्वाण कल्याणारोपणं । साक्षात्तु न विधेयम् ।
मोक्ष कल्याणक हिन्दी पूजा
त्रिभंगी
जय जय तीर्थंकर मुक्तिवधूवर भवसागर उद्धार करं, जय जय परमातम शुद्ध चिदातम कर्मकलंक निवारकरं । जय जय गुणसागर सुखरत्नाकर आत्ममगनता सार धरं, जय जय निर्वाणं पाय सुज्ञानं पूजत पग संसार हरं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो पुष्पांजलिं क्षिपेत् | वसंत तिलका छंद
(जयसेन प्रतिष्ठा, पृष्ठ ३०५)
पानी महान भरि शीतल शुद्ध लाऊं । जन्मादि रोग हर कारण भाव ध्याऊं ॥ पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः जलं ।
केशर सुमिश्रित सुगंधित चन्दनादी । आताप सर्व भव नाशन मोह आदी || पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः चंदनं ।
चन्द समान बहु अक्षत धार थाली । अक्षय स्वभाव पाऊं गुण रत्नशाली || पूजूं सदा चतुर्विंशति सिद्ध कालं । पाऊं महान शिवमंगल नाश कालं ॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिमहावीरपर्यंत चतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यो नमः अक्षतं ।
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[ प्रतिष्ठा प्रदीप ]
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