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६४ ऋद्धियाँ बुद्धि १८- केवलज्ञान, मनःपर्यय, अवधि, बीज, कोष्ठ, पादानुसारि, संभिन्न संश्रोतृ, दूरादास्वादन, दूराद्दर्शन, दूरात्स्पर्शाद्विन, दूराद्माण, दूरालघुवण, दशपूर्वित्व, चतुर्दशपूर्वित्व, अष्टांगमहानिमित्त, प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येकबुद्धि, वादित्व ।
विक्रिया- जल, जंघा, तंतु, फल, पुष्प, बीज, आकाश, श्रेणी, अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाट्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघाती, अंतर्धान, सकामरूपित्व।
तप७- उग्र, घोरतप, घोर पराक्रम, घोर ब्रह्मचर्य, तप्त तप, दीप्त तप, महातप। बल ३- मन, वचन, काय ।
औषध ८- आमर्ष, श्वेल, जल्ल, मल्ल, बिड, सर्व, मुखनिर्विष, दृष्टिनिर्विष । रस ६- आस्यविष, दृष्टिविष, शीरश्रावी, मधुश्रावी, सर्पिश्रावी, अमृतश्रावी। क्षेत्र (अशीष)२- अशीषमहानस, अशीषमहालय ।
यजमान-यज्ञनायक या प्रतिष्ठाकारक न्यायोपजीवी, गुरुभक्त, अनिंद्य, विनयी, पूर्णांग, शास्त्रज्ञ, उदार, अपवाद व उन्माद रहित, राज्य व निर्माल्य द्रव्य का हर्ता न हो, प्रतिष्ठा में सम्पत्ति का व्यय करने वाला, कषाय रहित, धामिक व्यक्ति यज्ञनायक के योग्य होता है । प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी अष्टमूल गुणधारी, सप्त व्यसन त्यागी और अणुव्रती बने । उनसे तीर्थंकर के माता-पिता न बनाकर वर्तमान आवश्यकतानुसार उनका कार्य सम्पन्न करा दें। माता का काम मंजूषा (पेटी) से लेने का उल्लेख जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पद्म ७१९ में व सभी प्रतिष्ठा पाठों में मिलता है। पिता की स्थापना भद्रपीठ में बताई है। अन्य प्रतिष्ठा पाठों में भी माता-पिता बनाने के प्रमाण नहीं हैं।
प्रतिष्ठाचार्य या गृहस्थाचार्य के लक्षण स्याद्वाद विद्या में निपुण शुद्ध उच्चारण वाला, आलस्यरहित, स्वस्थ, क्रियाकुशल, दया दान शीलवान, इन्द्रिय विजयी, देव गुरु भक्त, शास्त्रज्ञ, धर्मोपदेशक, क्षमावान्, समाज-मान्य, व्रती, दूरदर्शी, शंका समाधानकर्ता, उत्तम कुल वाला, आत्मज्ञ, जिन धर्मानुयायी, गुरु से मंत्र शिक्षा प्राप्त, हविष्यान्न (घृतमिश्रित चरुभात)- (शब्दरत्नाकर कोश व आप्टे के कोशानुसार) का भोजन कर रात्रि भोजन का त्यागी, निद्रा विजयी, निःस्पृह, परदुःखहर्ता, विधिज्ञ और उपसर्गहर्ता प्रतिष्ठाचार्य होता है । वर्णी ब्रह्मचारी या गृहस्थ बारह व्रतधारी भी वसुनंदि प्रतिष्ठापाठ में बताया है । लोभी, क्रोधी, संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ और अशांत प्रतिष्ठाचार्य या गृहस्थाचार्य त्याज्य हैं।
विशेष- प्रमुख आचार्य दिगम्बर मुनि होते हैं, जिनसे आज्ञा व यज्ञ दीक्षा ली जाती है वे ही सूरिमन्त्र देते हैं।
[प्रतिष्ठा-प्रदीप]
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