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पुरुषस्य जरा पंथा, अश्वानां भैथुनं जरा । अमथुनं जरा स्त्रीणां, वस्त्राणां वमलं जरा
॥१६५ ॥
वोह कौनसा उकदा है, जो वा हो नहीं सकता ? | हिम्मत करे इन्सान, तो क्या हो नहीं सकता ? ॥ १६६ ॥
तुझे देखकर ओंरोंको, किन आंखों से हम देखें ? वे आंखें फूट जायें, औरोंको जिन आँखों से हम देखें १६७
जमाना है नाम मेरा, सभी को बतादूंगा। न माने बात जो मेरी, उसी को चखादूगा ॥१६८॥
बहता पानी निर्मला, खड़ा सो गंदा होय । साधू तो रमता भळा, दाग न. लागे कोय
॥ १६९ ॥
रक्त लगे कपडे, जामा होवे पलीत । जे रक्त पीवें मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त ॥१७० ॥
फूट नाशका मूल है, फूट मत करो कोय । फूट पडी नृप हिंद में, दीयो देश को खोय
॥१७१ ॥
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