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धर्म करत संसार सुख, धर्म करत नवनिध । धर्म पंथ साधन विना, नर तिथंच समान
॥१७९ ॥
जे माणस जेणीपरे, समजे धर्मनो सार । पंडित जन तेनी परे, समजावे निरधार
॥१८० ॥
सबसे हीलना सबसे मीलना, सबका लेना नाम । सबसे हाजी हाजी करना, बसना अपना गांव ।। १८१ ॥
हमारें जो भक्त है, तुम्हारे है वो ठक्त । तुम्हारे जो भक्त है, हमारे है वो ठक्त ॥१८२ ॥
धर्म घटे धन घटे, घटत घटत घट जाय । धर्म बढे धन बढे, बढत बढत बढ जाय
॥१८३ ।।
शरते करडे कुतरो, वे शरते मारे वाघ । विश्वासे मारे वाणियो, चगदायो करडे नाम
॥१८४ ॥
टकाही धर्म है टकाही कर्म है, टका स्वर्गका दाताजी । टकाही मनोरथ पूर्ण करेगा, टका चढायो माताजी ॥१८५॥
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