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परधन पत्थर जाणीये, परस्त्री मात समान । इतने किये हरि न मीले, तो तुलसीदास जमान ॥ २०७।।
पठन गुनन कवि चातुरी है, सब बात सहल्ल । मदन दहन मन वशीकरन, गगन चलन मुसकिल ॥२०८॥
बात बात सब एक है, बतलावन में फेर । एक पवन बादल मीले, एक ही देत विखेर
॥२०९ ॥
जीभ्यामें अमृत बसे, विष भी उनके पास । एक बोल से लाख ल्ये, एक लाख विनाश
॥२१
॥
कविजन किमही न छडीए, जो होय हयडे सान । मेरु टाळी कर्कर करे, कर्कर मेरु समान ॥२११॥
जिनमूर्ति मानी नही, पूजत आण्यो द्वेष । ते नर मर गंडक हूवा, रोवे झालर देख
॥२१२ ।।
जाति न पुछो साधुकी, जो पुछो तो ज्ञान । मोल करो तरवार का, परा रहन दो म्यान
॥२१३॥
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