Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana Author(s): Surendrakumar Jain Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir View full book textPage 4
________________ सांस्कृतिक मणियों का अनुसन्धानकर सिलसिलेवारं सआने का प्रयास किया है। इसमें कुल आठ परिच्छेद हैं। भूमिका में जैनचरित काव्य परम्परा का उल्लेख करने के बाद प्रथम परिच्छेद में तीर्थकर पाश्वनाथ के जीवनचरित का तुलनात्मक विवेचन तथा उनकी ऐतिहासिकता एवं विविध साहित्य में भगवान पार्श्वनाथ सम्बन्धी कथानकों का तुलनात्मक विवेचन किया है। द्वितीय परिच्छेद में 'पासणाहबरिअ' का परिचय' शीर्षक से महाकवि रइधृ का परिचय, रचनायें, पासणाहचरिउ का रचनाकाल, कथासार, मूलस्रोत आदि का विवेचना किया है। तृतीय परिच्छेद में 'पासणाहरित' को भाषा-शैली, चतुर्थ परिच्छेद में 'पासणाहचरित' का महाकाव्यत्व सिद्ध करने के उपरान्त पञ्चम परिच्छेद में 'पासणाहचरित' में वर्णित सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन एवं सांस्कृतिक पक्ष को उद्घाटन किया है। ज पारतोद में राजनैतिक प्यास्था एवं सप्तम परिच्छेद में धर्म और दर्शन सम्बन्धी मान्यताओं का स्वरूप विश्लेषण किया है। अष्टम परिच्छेद में पार्श्वनाथचरित विषयक रचनाओं में रइधकृत 'पासणाहचरित' का स्थान निर्धारित करते हुए इसे भारतीय साहित्य की अनुपम कृति निरूपित किया है। उक्त शोध प्रबन्ध के लेखन में मुझे जिन महान् लेखकों, कवियों, दानिकों की रचनाओं का योगदान मिला. उनका मैंने यथाशवय लेख पादटिप्पणियों में किया है। प्राचीन रचनाओं के दिव्यालोक में नवीन रचनाओं का संबल पाकर मैं अपना शोध कार्य पूर्णता के शिखर पर ला सका इस हे गटन सब रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। जिस तरह मरुभूमि में 3रे चरण चिन्हीं से भ्रमित पथिक को ना का दिशादर्शन मिलता है उसी तरह निदेशक विपत्र से भटकात्र को अपने दिशादर्शन से बचा लेता है। मेरे शोध निर्देशक डॉ. प्रेमचन्द जैन ( प्राध्यापक हिन्दी विभाग, साहू जैन कालेज, नजीबाबाद उ. प्र.) अपभ्रंश एवं हिन्दी साहित्य के प्रख आयेता एवं अधिकारी विद्वान हैं। आपके कुशल निर्देशन एवं भ्रातृवत् स्नेह के कारण यह शोध ग्रन्थ पूर्ण हो सका। इस हेतु मैं डॉ. प्रेमचन्द जैन के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। महाकवि रइधृ रचित साहित्यानुशीलन को साधना में अनवरत संलग्न श्रद्धेय डॉ. राजाराम जैन (आरा) को कृतियों में मुझे भरपूर सहायता प्राप्त हुई। मेरे समय जीवन विकास के मृत स्रोत हैं पृल्य पितामह स्त्र. मि. भागचन्द जैनPage Navigation
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