________________
प्रवचनसार-गाथा ९९
पदार्थ विज्ञान त्रिकाली परिणामों को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सिद्ध किया है। उसके दृष्टान्त में द्रव्य के समस्त प्रदेशों को क्षेत्र-अपेक्षा से उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक सिद्ध किया है। फिर एक ही परिणाम में उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मकपना बतलाया।
इसप्रकार परिणाम के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्ध करने के पश्चात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम के प्रवाह में निरन्तर वर्त रहा द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसहित होने से सत् है - ऐसा कहा है।
ऊपर जो बातें कही हैं, उनमें तीसरे बोल में 'अपने-अपने अवसर में' त्रैकालिक समस्त परिणामों के एक ही साथ होने वाले उत्पाद-व्ययध्रौव्य की बात करके यहाँ अकेला ज्ञायकभाव ही बतलाया है। ___ यहाँ परिणामों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य समझाने के लिए प्रदेशों का उदाहरण लिया है। कोई ऐसा कहे कि दूसरा कोई सरल उदाहरण न देकर आचार्यदेव ने प्रदेशों का ऐसा सूक्ष्म उदाहरण क्यों दिया? उनसे कहते हैं कि भाई! द्रव्य के प्रदेशों का सारा क्षेत्र एकसाथ अक्रम से फैला पड़ा है और परिणामों की व्यक्तता तो क्रमशः होती है, इसलिए प्रदेशों की अपेक्षा परिणामों की बात सूक्ष्म है। यहाँ परिणामों के उत्पाद-व्ययध्रौव्य की सूक्ष्म एवं गंभीर बात समझाना है, इसलिये उदाहरण भी प्रदेशों का सूक्ष्म ही लेना पड़ा है। यदि बाह्य स्थूल उदाहरण दें तो सिद्धान्त की जो सूक्ष्मता और गम्भीरता है, वह ख्याल में नहीं आयेगी, इसलिये ऐसे सूक्ष्म उदाहरण की ही यहाँ आवश्यकता है।
आत्मा ज्ञानस्वभावी है और ज्ञान का स्वभाव जानना है, वह जानने का ही कार्य करता है। आत्मा में और पर में जो अवस्था हो उसे वैसा ही जानना ज्ञान का स्वभाव है, ज्ञान उसमें कुछ भी फेरफार करता नहीं, ज्ञान तो केवल जानता है। जानने के अतिरिक्त ज्ञान का अन्य कोई कार्य नहीं है। रागादि परिणामों को भी मात्र जानना ज्ञान का कार्य है। राग को
अपना त्रिकालीस्वभाव मानना ज्ञान का कार्य नहीं है और उस रागपरिणाम को बदलकर आगे पीछे करे - ऐसा भी ज्ञान का कार्य नहीं है। बस! स्व या पर, विकारी या अविकारी समस्त ज्ञेयों को जानना ही ज्ञान का कार्य है। आत्मा को मात्र रागादि परिणामों जितना मानना ज्ञान का कार्य नहीं है। ऐसे ज्ञानस्वभाव की प्रतीति ही सम्यग्दर्शन एवं वीतरागता का मूल है। __इस जगत् में अनंत जीव, अनंतानन्त पुद्गल, एक-एक धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय एवं आकाश और असंख्यात कालाण रूप छह प्रकार के पदार्थ हैं। उनमें से प्रत्येक आत्मा का ज्ञानगुण छहों पदार्थों की क्रमशः होने वाली समस्त अवस्थाओं को तथा द्रव्य-गुणों को जानने वाला है। ऐसे ज्ञानस्वभाव को जो जानता है वह जीव राग-परिणाम को जानता अवश्य है, किन्तु उस राग को अपना मूलस्वरूप नहीं मानता - राग को धर्म नहीं मानता और राग-परिणाम को आगे-पीछे करने वाला भी नहीं मानता। अपने अवसर (स्व-काल) में वह राग-परिणाम भी सत है.
और उसे जानने वाला ज्ञान भी सत् है। द्रव्य के त्रिकाली प्रवाहक्रम में वह राग-परिणाम भी सत्रूप से आ जाता है, इसलिये वह भी ज्ञान का ज्ञेय है। राग था इसलिये राग का ज्ञान हुआ - ऐसा नहीं है, किन्तु ज्ञान का ही स्वभाव जानने का है। पूर्ण स्वज्ञेय को जानने वाला ज्ञान उस राग को भी स्वज्ञेय के अंशरूप से जानता है, त्रिकाली अंशी के ज्ञानसहित अंश का भी ज्ञान करता है। यदि राग को स्वज्ञेय के अंशरूप से सर्वथा न जाने तो उस ज्ञान में सम्पूर्ण स्वज्ञेय नहीं होता, इसलिये वह ज्ञान सच्चा नहीं होता,
और यदि उस रागरूप अंश को ही पूर्ण स्वज्ञेय मान ले और त्रिकाली द्रव्य-गुण को स्वज्ञेय न बनाये तो वह ज्ञान भी मिथ्या है। द्रव्य, गुण और समस्त पर्यायें - ये तीनों मिलकर स्वज्ञेय पूरा होता है। उसमें अंशीत्रिकाली द्रव्य-गुण की रुचि सहित अंश को और परज्ञेय को जानने का कार्य सम्यग्ज्ञान करता है। यथार्थ ज्ञान में ज्ञेयों का स्वभाव कैसा ज्ञात