Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ पदार्थ विज्ञान प्रवचनसार-गाथा ९९ द्रव्य का सूक्ष्म अंश परिणाम है। __परिणाम परिणामी में से आता है। जो ऐसे परिणामी द्रव्य की दृष्टि करता है, उसे परिणामी के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणाम उत्पन्न होता है, स्थिर रहता है और बढ़कर पूर्ण होता है। प्रत्येक परिणाम अपने स्वकाल में उत्पन्न होता है, पूर्व परिणाम से व्ययरूप है और अखण्ड प्रवाह में ध्रौव्य है। केवलज्ञान-परिणाम अपने स्वरूप की अपेक्षा में स्वकाल में उत्पादरूप है, पूर्व की अल्पज्ञ पर्याय की अपेक्षा व्ययरूप है और द्रव्य के अखण्ड प्रवाह में केवलज्ञानपरिणाम ध्रौव्य है। इसप्रकार समस्त परिणाम अपने-अपने वर्तमान काल में उत्पादव्यय-ध्रौव्यवाले हैं, और उन-उन वर्तमान परिणामों में वस्तु वर्त रही है, अर्थात् वस्तु वर्तमान में ही पूर्ण है। ज्ञानी केवलज्ञान को नहीं ढूँढ़ते, उस पर दृष्टि नहीं रखते, क्योंकि वह पर्याय इस समय तो सत् नहीं है, वह तो भविष्य में अपने स्वकाल में सत् है, इसलिये ज्ञानी तो वर्तमान में सत्स्वरूप ध्रुवद्रव्य को ही ढूँढ़ते हैं, ध्रुवपर दृष्टि रखते हैं। इस अपेक्षा से नियमसार में उदय-उपशम-क्षयोपशम और क्षायिक इन चारों भावों को विभावभाव कहा है। जो पर्याय वर्तमान उत्पादरूप से वर्तती है, वह तो अंश है ही, केवलज्ञान पर्याय भी अंश है। वह केवलज्ञान पर्याय वर्तमान में प्रगट नहीं है, भविष्य में प्रगट होगी - इसप्रकार परिणाम के काल पर दृष्टि नहीं रहती। वर्तमान परिणाम के समय जो ध्रुवरूप से सम्पूर्ण द्रव्य वर्त रहा है, वह तो द्रव्य की प्रतीति करता है। द्रव्य की दृष्टि होने से वीतरागता होती है। शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता है तथा वीतरागता स्वभाव की दृष्टि से होती है। अंतर में द्रव्यस्वभाव पर लक्ष रहने से वीतरागता हो जाती है, इससे ध्रुव द्रव्यस्वभाव की दृष्टि ही सर्वस्व कार्यकारी हुई। पर्याय को ढूँढ़ना नहीं रहा अर्थात् पर्याय की दृष्टि नहीं रही। ध्रुवस्वभाव की दृष्टि रखकर पर्याय का ज्ञाता रहने से वीतरागता स्वतः होती जाती है। यद्यपि वीतरागता ही एकमात्र प्रयोजनभूत है किन्तु प्रश्न यह है कि वह वीतरागता कैसे हो? वीतरागपर्याय को शोधने से वीतरागता नहीं होती किन्तु ध्रुवतत्त्व के आश्रय से पर्याय में वीतरागतारूप प्रयोजन फलित हो जाता है। इसलिये, शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता है - ऐसा कहो, या शास्त्र का तात्पर्य स्वभावदृष्टि है - ऐसा कहो, दोनों एक ही है। जैसा भगवान का आत्मा, वैसा ही अपना आत्मा, उसके स्वभाव में कोई भेद नहीं है। ऐसे स्वभाव का लक्ष्य करना ही शास्त्रों का सार है। ___ यहाँ परिणामों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की बात चल रही है, उसमें से वीतरागी तात्पर्य किसप्रकार निकलता है, यह बतलाया है। परिणामों में ध्रौव्यता तो अखण्डप्रवाह अपेक्षा से है। अब, परिणामों का प्रवाहक्रम एकसाथ तो वर्तता नहीं है, इसलिये परिणामों की ध्रौव्यता निश्चित करते हुए ध्रुवस्वभाव पर दृष्टि जाती है। ध्रुवस्वभाव की दृष्टि बिना परिणाम के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य निश्चित नहीं हो सकते । परिणाम को ध्रौव्य कब कहा? - परिणामों के संपूर्ण प्रवाह की अपेक्षा से उसे ध्रौव्य कहा है, सम्पूर्ण प्रवाह एक समय में प्रगट नहीं हो जाता इसलिये परिणाम की ध्रौव्यता निश्चित् करने वाले की दृष्टि एक-एक परिणाम के ऊपर से हटकर ध्रुवद्रव्य पर जाती है। परिणाम के ऊपर की दृष्टि से (पर्यायदृष्टि से) परिणाम की ध्रौव्यता निश्चित नहीं होती। परिणामों का अखण्ड प्रवाह कहीं एक ही परिणाम में तो नहीं है, इसलिये अखण्ड की - त्रिकाली द्रव्य की - ध्रुवस्वभाव की दृष्टि हुए बिना परिणाम के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भी ख्याल में नहीं आ सकते। वस्तु एक समय में पूर्ण है, उसके परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपना निश्चित् करने से द्रव्य पर ही दृष्टि जाती है। वर्तमान परिणाम से उत्पाद है, पूर्व परिणाम से व्यय है, और अखण्डप्रवाह की अपेक्षा से ध्रौव्य है। इसलिये अखण्डप्रवाह की दृष्टि में ही ध्रुवस्वभाव पर दृष्टि गई और तभी परिणाम के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य निश्चित हुए। प्रश्न :- इसमें पुरुषार्थ कहाँ रहा? 31

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