Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ ६२ पदार्थ विज्ञान ध्रुवतत्त्व के बिना मात्र शून्य में से ही किसी भाव की उत्पत्ति नहीं होती । इसलिए उत्पाद के साथ ध्रुव और व्यय को भी मानना चाहिए। ऐसा ही उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप वस्तुस्वरूप है, सर्वज्ञदेव के ज्ञान में इसीप्रकार ज्ञात हुआ है, उनकी वाणी में इसीप्रकार आया है, सन्तों ने भी इसीप्रकार जानकर कहा है और शास्त्रों में भी यही कथन है। ऐसे वस्तुस्वरूप को जो नहीं जानता वह वास्तव में देव-गुरु-शास्त्र को नहीं जानता । देखो भाई! सत् सरल है, सहज है, सुगम है, किन्तु अज्ञानता से विषम मान लिया है, इसलिये कठिन लगता है। सत्समागम से शान्त होकर समझे तो सत् सरल है, सहज है। यह वस्तुस्वभाव समझे बिना किसी प्रकार कल्याण नहीं होता । वस्तु एक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप है। विकार की रुचि के अभाव बिना और नित्य आत्मा के अवलंबन के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। वस्तु में यदि ध्रुव और व्यय न हो तो उत्पाद नहीं होता। इसप्रकार एक मात्र उत्पाद मानने में उत्पाद के भी अभाव का प्रसंग आता है यह बतलाया। अब व्यय की बात करते हैं। ध्रुव और उत्पाद के बिना मात्र व्यय मानने में भी यही दोष आता है। ध्रुव और उत्पाद के बिना मात्र व्यय भी नहीं हो सकता । कोई कहे कि मिट्टी में पिण्डपर्याय का नाश हुआ, किन्तु घटपर्याय की उत्पत्ति नहीं हुई और मिट्टी स्थायी नहीं रही तो ऐसा नहीं हो सकता। इसीप्रकार कोई कहे कि हमारे परपदार्थों की रुचि का नाश तो हो गया है, किन्तु स्वपदार्थ की रुचि उत्पन्न नहीं हुई और आत्मा का ध्रुवपना भासि नहीं हुआ तो उसकी बात भी मिथ्या है। जिस क्षण पर में सुखबुद्धि का नाश हुआ उसी क्षण आत्मा की रुचि न हो और उसकी ध्रुवता का आधार भासित न हो ऐसा नहीं हो सकता। सम्यक्त्व का उत्पाद और आत्मा की ध्रुवता के बिना मिथ्यात्व का व्यय नहीं होता । पिण्डदशा के नाश का कारण घड़े की उत्पत्ति है, और घड़े में मिट्टीपना 36 प्रवचनसार-गाथा १०० स्थायी रहकर पिण्ड का व्यय होता है, पिण्ड का व्यय होने पर भी मिट्टी ध्रुव रहती है। यदि वस्तु में नवीन भावों की उत्पत्ति और वस्तु की ध्रुवता न माने तो जगत् में कारण के अभाव में किन्हीं भावों का नाश ही नहीं होगा, अथवा तो सत् का ही सर्वथा नाश हो जायेगा। स्व की रुचि के उत्पाद बिना और ध्रुव आत्मा के अवलम्बन बिना ही यदि कोई मिथ्यारुचि का व्यय करना चाहे तो प्रथम तो व्यय हो ही नहीं सकता। यदि होना माने भी तो मिथ्यारुचि के नाश के साथ आत्मा का ही नाश हो जायेगा। इसलिए ध्रुव और उत्पाद इन दो भावों के बिना मात्र व्यय नहीं होता । ऐसा सभी भावों में समझना । सर्वज्ञदेव का देखा हुआ और कहा हुआ वस्तु का स्वरूप त्रिकाल सनातन यथावत वर्त रहा है, उसमें कोई अन्यथा कल्पना करे तो उसको कल्पना से वस्तुस्वरूप में तो कुछ फेरफार हो नहीं सकता, उसकी मान्यता में ही मिथ्यात्व होगा। ६३ कोई कहे कि “अपने को तो दूसरा कुछ समझने का काम नहीं है, बस, एक मात्र राग-द्वेष को दूर करना है। उससे पूछना चाहिए कि ऐसा कहनेवाला किस भाव में स्थिर रहकर राग-द्वेष को दूर करेगा ? वीतराग भाव की उत्पत्ति और आत्मा की ध्रुवता को माने बिना अपने अस्तित्व को ही नहीं माना जा सकता और राग-द्वेष भी दूर नहीं हो सकते। वीतराग भाव की उत्पत्ति और आत्मा की ध्रुवता को माने बिना अपने अस्तित्व को ही नहीं माना जा सकता और रागद्वेष भी दूर नहीं हो सकते। यदि ध्रुवपना न माने तो चेतन की ध्रुवता के अवलम्बन बिना राग-द्वेष का नाश होने से आत्मा का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और यदि वीतरागता का उत्पाद न माने तो राग-द्वेष का नाश ही नहीं होता। राग का व्यय वीतरागता की उत्पत्ति है और उसमें चैतन्यपने की ध्रुवता है । ध्रुव के लक्ष्य से, वीतरागता की उत्पत्ति होने से, राग का व्यय होता है। इसप्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रुव तीनों एक साथ हैं। वीतरागता के उत्पाद बिना राग का

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