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पदार्थ विज्ञान
प्रवचनसार-गाथा १००
व्यय नहीं हो सकता और चेतन की ध्रुवता के बिना ही राग-द्वेष का नाश हो तो उस राग के साथ सत् आत्मा का भी नाश हो जायेगा। ध्रुव के बिना व्यय मानने से जगत के समस्त भावों के नाश का प्रसंग प्राप्त होगा। इसीलिए वस्तु में उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों एक साथ ही हैं - ऐसा वस्तुस्वरूप समझना चाहिए।
घड़े की उत्पत्ति में पिण्ड के व्ययरूप कारण न मानने से मिट्टी में से पिण्ड का व्यय नहीं होगा। और यदि पिण्ड का व्यय नहीं होगा तो उसकी भाँति ही जगत में अज्ञान, मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि किसी भी भाव का व्यय नहीं होगा और मुक्ति की प्राप्ति भी नहीं होगी और ध्रुवता के बिना राग-द्वेष का नाश होना माने तो उसकी श्रद्धा में आत्मा का नाश हो जाता है। यद्यपि वस्तुतः आत्मा का नाश नहीं होता, किन्तु आत्मा की ध्रुवता के अवलम्बन बिना राग-द्वेष का नाश करना जो मानता है उसकी मान्यता में आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता अर्थात् आत्मा का अभाव हो जाता है। __ कर्म पुद्गल की पर्याय है। उस पर्याय का नाश उसकी दूसरी पर्याय के उत्पाद बिना नहीं होता। कर्म का नाश आत्मा नहीं करता है। 'कर्म आत्मा को बाधक होते हैं, इसलिए उनका नाश करो' - ऐसा माननेवाले की समझ में भूल है। जो ध्रुव-स्वभाव के अवलम्बन बिना राग-द्वेष का नाश करना माने वह भी भूल में है। जड़कर्मों का नाश पुद्गल की ध्रुवता का और उसकी नवीन पर्याय के उत्पाद का अवलम्बन लेता है। आत्मा के वीतराग भाव से पुद्गल में कर्मदशा का व्यय हुआ या वीतराग भाव की उत्पत्ति होने से राग का व्यय होता है । वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रुव का उस वस्तु के साथ ही संबंध है, किन्तु एक वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रुव का दूसरी वस्तु के साथ कोई संबंध नहीं है। __यह तो सनातन सत्य वस्तुस्वरूप का महान नियम है। ईश्वर ने जीव को बनाया है, - “इसप्रकार ईश्वर को कर्ता माने अथवा जैसा निमित्त
आये वैसी पर्याय होती है - इसप्रकार दूसरी वस्तु को पर्याय की उत्पत्ति का कारण माने तो वे दोनों मान्यताएँ मिथ्या ही हैं, उनमें वस्तु की स्वतंत्रता नहीं रहती। प्रत्येक वस्तु में प्रतिसमय स्वतंत्र अपने से ही उत्पादव्यय-ध्रुव होता है, ऐसी ही वस्तुस्थिति है, कोई ईश्वर या कोई निमित्त उसके उत्पाद-व्यय-ध्रुव में कुछ नहीं करते। कोई ऐसा कहे कि सम्पूर्ण वस्तु को दूसरे ने बनाया है और दूसरा ऐसा कहे कि वस्तु की अवस्था को दूसरे ने बनाया है, तो उन दोनों की मिथ्या मान्यता में परमार्थतः कोई अंतर नहीं है।
जिसने एकसमय में वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव को नहीं जाना । उसकी मान्यता में अवश्य कुछ न कुछ दोष आता है। यदि वस्तु में एक भाव का व्यय होने से उसीसमय नवीन भाव की उत्पत्ति न हो और वस्तु की ध्रुवता न रहे तो व्यय होने से सत् का ही नाश हो जायेगा, इसलिए जगत के समस्त पदार्थों का नाश हो जाता है। चैतन्य की ध्रुवता रहकर और सम्यक्त्व भाव की उत्पत्ति होकर ही मिथ्यात्वभाव का व्यय होता है।
प्रत्येक समय का सत् उत्पाद-व्यय-ध्रुववाला है। उन उत्पाद-व्ययध्रुव तीनों को एकसाथ न मानें तो उसकी सिद्धि ही नहीं होती। पर के कारण उत्पाद-व्यय-ध्रुव माने वह तो मिथ्या ही है. और अपने में भी उत्पाद, व्यय या ध्रुव को एक-दूसरे के बिना माने तो वह भी वस्तु को नहीं जानता है। देव-गुरु के कारण अपने में सम्यक्त्व का उत्पाद होना माने तो उसे सम्यक्त्व का उत्पाद सिद्ध नहीं होता और अपने में मिथ्यात्व का व्यय तथा आत्मा की ध्रुवता - इन दोनों के बिना सम्यक्त्व का उत्पाद सिद्ध नहीं होता। इसीप्रकार मिथ्यात्व का व्यय भी सम्यक्त्व के उत्पाद और चैतन्य की ध्रुवता के बिना सिद्ध नहीं होता।
पैसे खर्च करने से आत्मा को धर्म हो - यह बात भी मिथ्या है, क्योंकि पैसे की एक पर्याय का व्यय उसकी दूसरी पर्याय के उत्पाद का कारण है, किन्तु आत्मा की धर्मपर्याय के उत्पाद का कारण वह नहीं है।