Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 29
________________ पदार्थ विज्ञान स्व-अवसर में सत् हैं, इसलिये उन परिणामों का रचयिता भी दूसरा कोई नहीं है। जिसप्रकार त्रिकाली द्रव्य का कर्त्ता कोई ईश्वर आदि नहीं है, उसीप्रकार उस त्रिकाली द्रव्य के वर्तमानपरिणाम का कर्त्ता भी कोई दूसरा निमित्त, कर्म या जीव आदि नहीं है। द्रव्य अपने प्रत्येक समय के उत्पादव्यय- ध्रौव्य में स्थित रहता है, इसलिये सत् है। यदि द्रव्य दूसरे के उत्पादव्यय- ध्रौव्य में स्थित रहता है, इसलिये सत् है। यदि द्रव्य दूसरे के उत्पादव्यय - ध्रौव्य का अवलम्बन करे तो वह स्वयं सत् नहीं रह सकता। इसलिये जो जीव द्रव्य को यथार्थतया 'सत्' जानता हो, वह द्रव्य का या द्रव्य की किसी पर्याय का कर्ता दूसरे को नहीं मानता। जो जीव द्रव्य का या द्रव्य की किसी पर्याय का कर्त्ता दूसरे को माने, उस जीव ने वास्तव में 'सत्' को नहीं जाना है। ४८ अहो! वस्तु के सत्स्वभाव को जाने बिना बाह्य क्रिया-काण्ड के लक्ष्य से अनंतकाल बिता दिया, किन्तु वस्तु का सत्स्वभाव नहीं जाना, इसलिये संसार में परिभ्रमण कर रहा है। वस्तु अपने परिणाम में परिणमन करती है, वह परिणाम से पृथक् नहीं रहती। प्रत्येक समय के परिणाम के समय सम्पूर्ण वस्तु साथ में वर्त रही है - ऐसा जाने तो अपने को क्षणिक राग जितना न मानकर उसी समय अन्तर के स्वभाव से सम्पूर्ण वस्तु रागरहित विद्यमान है। विश्वास करते ही राग की रुचि का बल टूट कर सम्पूर्ण वस्तु पर रुचि का बल ढल जाता है, राग और आत्मा का भेदज्ञान हो जाता है। 'मैं पर में नहीं वर्तता, मेरे परिणाम में परवस्तु नहीं वर्तती, किन्तु मैं अपने परिणाम में ही वर्तता हूँ' - इसप्रकार परिणाम और परिणामी की स्वतंत्रता जानने से रुचि पर में नहीं जाती, परिणाम पर भी नहीं रहती, किन्तु परिणामी द्रव्य में प्रविष्ट हो जाती है। 'वस्तु परिणाम से वर्तती है' - ऐसा निश्चित करने में पर्यायबुद्धि दूर 29 प्रवचनसार-गाथा ९९ ४९ होकर द्रव्यदृष्टि हो जाती है, उसी में वीतरागता विद्यमान है। मेरी भविष्य की केवलज्ञान पर्याय में भी यह द्रव्य ही वर्तेगा, इसलिये भविष्य की केवलज्ञानपर्याय को देखना भी नहीं रहा। द्रव्य की सन्मुखता में अल्पकाल में केवलज्ञान हुए बिना नहीं रहता । अहो! मैं अपने परिणामस्वभाव में हूँ, परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है, उसी में आत्मद्रव्य वर्तता है - इसप्रकार स्व-वस्तु की दृष्टि होने से पर से लाभ-हानि मानने का मिथ्यात्व नहीं रहता। वहाँ सम्यग्ज्ञान पर्यायरूप से उत्पाद है, मिथ्याज्ञान पर्यायरूप से व्यय है और ज्ञान में अखण्ड परिणामरूप से ध्रौव्यता है। इसप्रकार इसमें धर्म आ जाता है। ‘परिणामी के परिणाम हैं’ - ऐसा न मानकर जिसने पर के कारण परिणामों को माना उसने परिणामी को दृष्टि में ही नहीं लिया, किन्तु अपने परिणाम का कर्ता पर है ऐसा माना, इसलिये वह मिथ्यादृष्टि है। परिणाम परिणामी के हैं - इसप्रकार परिणाम और परिणामी की स्वतंत्रता की रुचि में स्वद्रव्य की सम्यकुरुचि उत्पन्न होकर मिथ्यारुचि का नाश हो जाता है। देखो, यह वस्तुस्थिति का वर्णन है। जैनदर्शन कोई बाड़ा या कल्पना नहीं है; किन्तु वस्तुएँ जैसे स्वभाव में हैं, वैसी सर्वज्ञ भगवान ने देखी है। और वही जैनदर्शन में कही है। जैनदर्शन कहो या वस्तु का स्वभाव कहो, उसका ज्ञान कर तो तेरा ज्ञान सच्चा होगा और भव का परिभ्रमण दूर होगा। यदि वस्तु के स्वभाव को विपरीत मानेगा तो असत वस्तु की मान्यता से तेरा ज्ञान मिथ्या होगा परिभ्रमण का अंत नहीं आयेगा, क्योंकि मिथ्यात्व ही सबसे महान पाप माना गया है, वही अनंत संसार का मूल है । जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त परिणाम है, वह स्वभाव है और स्वभाव स्वभाववान् के कारण है। इसप्रकार स्वभाव और स्वभाववान् को दृष्टि में लेने से, पर के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य को मैं करूँ या मेरे उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य

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