Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ पदार्थ विज्ञान स्वभाव को छोड़कर अन्यरूप नहीं होते। बस, ज्ञान और ज्ञेय के ऐसे स्वभाव की प्रतीति ही वीतरागी श्रद्धा है, और ऐसा ही वीतरागी विज्ञान है। स्वतंत्र ज्ञेयों को यथावत् जानना सम्यक्ज्ञान की क्रिया है। ज्ञान जानने का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त वह कहीं फेरफार करने का कार्य नहीं करता । प्रत्येक पदार्थ स्वयंसिद्ध सत् है, और उसमें पर्यायधर्म है, वे पर्यायें उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य स्वभाववाली हैं। इसलिये पदार्थ में प्रतिसमय पर्याय के उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य होते हैं, उनमें वह पदार्थ वर्त रहा है। इसप्रकार स्वतंत्र द्रव्य स्वभाव को जानना सम्यग्ज्ञान है। यदि प्रत्येक पर्याय की स्वतंत्रता को न जाने तो उसने द्रव्य की स्वतंत्रता को भी नहीं जाना है, क्योंकि “सत्" का स्वभाव अपने ही परिणाम में प्रवर्तन करने का है। सत् स्वयं उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक है। सत् के अपने परिणाम का उत्पाद यदि दूसरे से होता हो तो वह स्वयं “ उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्त सत्" ही नहीं रहता। इसलिये उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्त सत् है - ऐसा मानते ही परिणाम की स्वतंत्रता की स्वीकृति तो आ ही गई तथा परिणाम परिणाम में से नहीं, किन्तु परिणामी (द्रव्य) में से आते हैं, इसलिये उसकी दृष्टि परिणामी पर गई, वह स्वद्रव्य के सन्मुख हुआ, स्वद्रव्य की सन्मुखता में जो सम्यक् श्रद्धा ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति होती है, वही मोक्ष का कारण है। ४६ प्रश्न :- सोना और तांबा- दोनों का मिश्रण होने पर तो वे एकदूसरे में एकमेक हो गये हैं न? उत्तर :- भाई ! वस्तुस्थिति को समझो। सोना और तांबा कभी एकमेक होते ही नहीं। संयोगदृष्टि से सोना और तांबा एकमेक हुए ऐसा कहा जाता है, किन्तु पदार्थ के स्वभाव की दृष्टि से तो सोना और तांबा कभी एकमेक हुए ही नहीं है, क्योंकि जो सोने के रजकण हैं वे अपने सुवर्णपरिणाम में ही वर्तते हैं और जो तांबे के रजकण हैं वे अपने तांबापरिणाम में ही वर्तते हैं, एक रजकण दूसरे रजकण के परिणाम में नहीं वर्तता । सोने के दो रजकणों में से भी उसका एक रजकण दूसरे में नहीं 28 प्रवचनसार-गाथा ९९ वर्तता । यदि एक पदार्थ दूसरे में और दूसरा तीसरे में मिल जाये तब तो जगत् में कोई स्वतंत्र वस्तु ही न रहे। सोना और तांबा “मिश्र हुआ' ऐसा कहने से भी उन दोनों की भिन्नता ही सिद्ध होती है, क्योंकि "मिश्रण" दो का होता है, एक में "मिश्रण" नहीं कहलाता। इसलिये मिश्रण कहते ही पदार्थों का भिन्न-भिन्न अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभावरूप से सत् रहती है, दूसरा कोई विपरीत माने तो उससे कहीं वस्तु का स्वभाव बदल नहीं जाता। कोई अफीम को गुड़ माने तो इससे कहीं अफीम की कड़वाहट दूर नहीं हो जायेगी, अफीम को गुड़ मानकर खाये तो उसे कड़वाहट का ही अनुभव होगा। उसीप्रकार तत्त्व को जैसे का तैसा स्वतंत्र न मानकर पर के आधार से स्थित माने तो, कहीं वस्तु तो पराधीन नहीं हो जाती, किन्तु उसने सत् की विपरीत मान्यता की, इसलिये उसका ज्ञान ही मिथ्या होता है और उस मिथ्याज्ञान के फल में उसे चौरासी का अवतार होता है। कोई जीव पुण्य का शुभरा करके ऐसा माने कि मैं धर्म करता हूँ, तो कहीं उसे राग से धर्म नहीं होगा, किन्तु उसने वस्तुस्वरूप को विपरीत जाना है, इसलिये उस अज्ञान के फल में उसे चौरासी के अवतार में परिभ्रमण करना पड़ेगा। ४७ - परिणाम स्वभाव है और द्रव्य स्वभाववान् है ऐसा जानकर स्वभाववान् द्रव्य की रुचि होते ही उसीसमय सम्यक्त्व का उत्पाद, मिथ्यात्व का व्यय और अखण्डरूप से आत्मा की ध्रुवता है। प्रत्येक वस्तु ‘सत्' है ‘सत्’ त्रिकाल स्वयंसिद्ध है। यदि सत् त्रिकाली न हो तो वह असत् सिद्ध होगा । वस्तु कभी असत् नहीं होती । वस्तु त्रिकाल है, इसलिये उसका कोई कर्त्ता नहीं है, क्योंकि त्रिकाली का रचयिता नहीं होता। यदि रचयिता कहो तो, उससे पूर्व वस्तु नहीं थी - ऐसा सिद्ध होगा, अर्थात् वस्तु का नित्यपना नहीं रहेगा । वस्तु त्रिकाल सत् है और वह वस्तु परिणामस्वभाववाली है। त्रिकाली द्रव्य ही अपने तीनों काल के वर्तमान परिणामों की रचना करता है। वे परिणाम भी

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