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पदार्थ विज्ञान
को पर करे - यह बात नहीं रहती। इसलिये स्वयं अपने स्वभाववान् की ओर उन्मुख होने से आत्मज्ञान उदित हो जाता है। यही तो धर्म की शुरूआत है। लोगों ने जो बाह्य आचरण में धर्म मान रखा है, वह मिथ्या मान्यता का फल है।
'वस्तु' उसे कहते हैं जो अपने गुण-पर्याय में वास करे, अपने गुणपर्याय से बाहर वस्तु कुछ नहीं करती और न वस्तु के गुण-पर्याय को कोई दूसरा करता है। ऐसे भिन्न-भिन्न तत्त्वार्थ का श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। प्रथम सम्यग्दर्शन होता है, तत्पश्चात् श्रावक और मुनि के व्रतादि होते हैं। आत्मा की प्रतीति हुए बिना कहाँ रहकर व्रतादि करेगा?
जिसप्रकार गाड़ी के नीचे चलनेवाले कुत्ते को यह भ्रम रहता है कि गाड़ी मेरे कारण चल रही है, जबकि गाड़ी के परिणाम में गाड़ी का प्रत्येक प्रमाण स्वतंत्र वर्त रहा है और कुत्ते के भ्रमरूप परिणामों में कुत्ता वर्त रहा है। गाड़ी और कुत्ता एक-दूसरे के परिणाम में नहीं वर्तते। उसीप्रकार परवस्तु के परिणाम स्वयं अपने-अपने से होते हैं, परन्तु अज्ञानी जीव व्यर्थ ही ऐसा मानता है कि पर के परिणाम मुझसे होते हैं। प्रत्येक तत्त्व के परिणाम सत् हैं, उसमें कोई दूसरा क्या करेगा? ऐसा स्वतंत्र वस्तु का स्वभाव है, वही सर्वज्ञ भगवान ने ज्ञान में देखा है। जैसा भगवान ने देखा है, वैसा वस्तु के स्वभाव को होना नहीं पड़ता और जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा वस्तु के स्वभाव को होना नहीं पड़ता और जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा ही भगवान को जानना पड़ेगा - ऐसा भी नहीं है। अर्थात् ज्ञान ज्ञेय के आधीन नहीं और ज्ञेय ज्ञान के आधीन नहीं है। ज्ञेय वस्तु का स्वभाव स्वतंत्र सत् है, और ज्ञान भी स्वतंत्र सत् है। प्रथम ऐसे सत्स्वभाव को समझो! जो ऐसे स्वभाव को समझ ले, उसी ने वस्तु को वस्तुरूप से जाना है - ऐसा कहा जाता है।
कर्म के परिणाम में पुद्गल वर्तते हैं और आत्मा के परिणाम में आत्मा वर्तता है, कोई एक-दूसरे के परिणाम में नहीं वर्तते, इसलिए कर्म
प्रवचनसार-गाथा ९९ आत्मा को परिभ्रमण कराते हैं - ऐसा माना है। इस विपरीत मान्यता से ही जीव भटक रहा है, कर्मों ने उसे नहीं भटकाया। प्रतिसमय उत्पादव्यय-ध्रौव्य होने का प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है - यह समझे तो परिणामी की द्रव्य पर दृष्टि जाती है और द्रव्यदृष्टि में सम्यक्त्व और वीतरागता का उत्पाद होता है, जिसे यथार्थ धर्मसंज्ञा प्राप्त है।
यदि द्रव्य के एकसमय का सत् दूसरे से हो तो उस द्रव्य का वर्तमान सत्पना नहीं रहता और वर्तमान सत् का नाश होने से त्रिकाली सत् माने बिना त्रिकाली द्रव्य का सत्पना सिद्ध नहीं होता, इसलिये द्रव्य का वर्तमान दूसरे से या निमित्तों से होता है - इस मान्यता में मिथ्यात्व होता है, क्योंकि उसमें सत् की स्वीकृति नहीं आती। सत् का नाश नहीं होता, किन्तु जिसने सत् को विपरीत माना है उसकी मान्यता में सत् का अभाव होता है। त्रिकाली सत् स्वतंत्र, किसी के बनाये बिना है और प्रत्येक समय का वर्तमान सत् भी स्वतंत्र किसी के बनाये बिना है। ऐसे स्वतंत्र सत् को पराधीन मानना हो तो मिथ्यात्व और अधर्म है। लोग काला बाजार आदि में तो अधर्म मानते हैं, किन्तु विपरीत मान्यता से सम्पूर्ण वस्तुस्वरूप का घात कर डालते हैं, उस विपरीत मान्यता के महापाप की खबर नहीं है। मिथ्यात्व तो धर्म के क्षेत्र का महान काला बाजार है, उसे काले बाजार से चौरासी के अवतार की जेल होती है। सत् को जैसे का तैसा माने तो मिथ्यात्वरूपी काले बाजार का महान पाप दूर हो जाता है
और सच्चा धर्म प्रगट होता है। इसलिये सर्वज्ञदेवकथित वस्तुस्वभाव को बराबर समझना चाहिये।
आत्मा का क्षेत्र असंख्यप्रदेशी एक है और उस क्षेत्र का छोटे से छोटा अंश प्रदेश है। उसीप्रकार सम्पूर्ण द्रव्य की प्रवाहधारा एक है और उस प्रवाहधारा का छोटे से छोटा अंश परिणाम है।
क्षेत्र अपेक्षा से द्रव्य का सूक्ष्म अंश प्रदेश है और काल अपेक्षा से
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