Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 27
________________ पदार्थ विज्ञान पुद्गल अवस्था में आत्मा विद्यमान नहीं है। शरीर की अवस्था में विद्यमान है। शरीर के अनंत रजकणों में भी वास्तव में प्रत्येक रजकण भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी अवस्था में विद्यमान है। ऐसा वस्तुस्वभाव देखनेवाले को पर में कहीं भी एकत्वबुद्धि नहीं होती और पर्यायबुद्धि के राग-द्वेष नहीं होते । ४४ = आत्मा और अन्य सभी पदार्थ प्रतिसमय अपनी नयी अवस्थारूप उत्पन्न होते हैं, पुरानी अवस्था रूप से व्यय को प्राप्त होते हैं और अखण्ड वस्तुरूप से ध्रौव्य रहते हैं। प्रत्येक समय के परिणाम उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य सहित हैं, वे परिणाम स्वभाव हैं और द्रव्यवान् हैं। स्वभाववान् द्रव्य अपने परिणामस्वभाव में स्थित है। कोई भी वस्तु या द्रव्य अपना स्वभाव छोड़कर दूसरे के स्वभाव में वर्ते या दूसरे के स्वभाव को करे - ऐसा उनमें नहीं वर्तता, तथापि 'आत्मा उस शरीर की अवस्था में कुछ करता है' ऐसा जिसने माना उसकी मान्यता मिथ्या है। जिसप्रकार अफीम की कड़वाहट आदि के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य परिणाम में अफीम ही विद्यमान है, उसमें कहीं गुड़ विद्यमान नहीं है और गुड़ के मिठास आदि के उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य परिणाम में गुड़ ही विद्यमान है, उसमें अफीम विद्यमान नहीं है । उसीप्रकार आत्मा के ज्ञान आदि के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य परिणाम स्वभाव में आत्मा ही विद्यमान है, उनमें इन्द्रियाँ या शरीरादि विद्यमान नहीं हैं, इसलिये उनसे (इन्द्रियों या शरीरादि से) आत्मा ज्ञात नहीं होता और पुद्गल के शरीर आदि के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परिणाम स्वभाव में पुद्गल ही विद्यमान है, उनमें आत्मा विद्यमान नहीं है, इसलिये आत्मा शरीरादि की क्रिया नहीं करता। इसप्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में ही विद्यमान है। बस, ऐसे पदार्थ के स्वभाव को जानना ही वीतरागी विज्ञान है, उसी में धर्म प्रगट होता है। प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा सीमा अपने-अपने स्वभाव में रहने की है, अपने स्वभाव की सीमा से बाहर निकलकर पर में कुछ करने की किसी 27 प्रवचनसार-गाथा ९९ ४५ पदार्थ में शक्ति ही नहीं है - ऐसी वस्तुस्थिति में ही प्रत्येक तत्त्व अपने स्वतंत्र अस्तित्व रूप से रह सकता है। यही बात अस्ति नास्तिरूप अनेकान्त से कही जाये तो प्रत्येक पदार्थ अपने स्व-चतुष्टय से (द्रव्यक्षेत्र-काल और भाव से) अस्तिरूप है और पर के चतुष्टय से वह नास्तिरूप है। इसप्रकार प्रत्येक तत्त्व भिन्न-भिन्न स्थित है - ऐसा निश्चित करने से स्वतत्त्व को परतत्त्व से भिन्न जाना और अपने स्वभाव में प्रवर्तमान स्वभाववान् द्रव्य की दृष्टि हुई, यही सम्यक् रुचि, सम्यक्ज्ञान और वीतरागता का कारण है। जैसी वस्तु हो उसे वैसा ही जानना तो सम्यग्ज्ञान है । जिसप्रकार लौकिक में गुड़ को गुड़ जाने और अफीम को अफीम जाने तो गुड़ और अफीम का सच्चा ज्ञान है, किन्तु यदि गुड़ को अफीम जाने या अफीम को गुड़ जाने तो वह मिथ्याज्ञान है। उसीप्रकार जगत् के पदार्थों में जड़-चेतन सभी स्वतंत्र हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यस्वभाव में स्थित है - ऐसा जानना सो सम्यक्ज्ञान है और एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ के कारण कुछ होता है - ऐसा मानना मिथ्याज्ञान है, क्योंकि उसने पदार्थ के स्वभाव को जैसा है वैसा नहीं जाना, किन्तु विपरीत माना है। आत्मा का "ज्ञायक" स्वभाव है और पदार्थों का "ज्ञेय" स्वभाव है, पदार्थों में फेरफार आगे-पीछे हो ऐसा उनका स्वभाव नहीं है और उनके स्वभाव में कुछ फेरफार करे ऐसा ज्ञान का स्वभाव नहीं है। जिसप्रकार आँख अफीम को अफीम रूप से और गुड़ को गुड़ रूप से देखती है, किन्तु अफीम को बदल कर गुड़ नहीं बनाती और गुड़ को बदल कर अफीम नहीं बनाती और वह अफीम भी अपना स्वभाव छोड़कर गुड़रूप नहीं होती तथा गुड़ भी अपना स्वभाव छोड़कर अफीमरूप नहीं होता । उसी प्रकार आत्मा का ज्ञानस्वभाव समस्त स्व-परज्ञेयों को यथावत् जानता है, किन्तु उनमें कहीं कुछ भी फेरफार नहीं करता और ज्ञेय भी अपने

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