Book Title: Padartha Vigyan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ २८ पदार्थ विज्ञान तो उसमें सुख-दुःख आदि कार्य नहीं हो सकते, और यदि वस्तु एकान्ततः पलटती ही रहे तो वह त्रिकालस्थायी नहीं रह सकती, दूसरे ही क्षण उसका सर्वथा अभाव हो जायेगा। इसलिये वस्तु अकेली नित्य या अकेली पलटती नहीं है, किन्तु नित्यस्थायी रहकर प्रतिक्षण पलटती है। इसप्रकार नित्य पलटती हुई वस्तु कहो या 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत्' कहो - एक ही बात है। अल्प से अल्पकाल में होनेवाले परिणाम में वर्तता द्रव्य नित्यस्थायी है। उसके प्रत्येक परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपना है - यह बात स्पष्ट हो गई है। अब कहते हैं कि द्रव्य स्वयं भी उत्पाद-व्ययध्रौव्यवाला है। समस्त पदार्थ सत् है । पदार्थ 'है' ऐसा कहते ही उसका सत्पना आ जाता है । पदार्थों का सत्पना पहले ७८वीं गाथा में सिद्ध कर चुके हैं। पदार्थ सत् हैं और सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसहित है। कोई भी वस्तु हो वह त्रिकाल अर्थात् प्रत्येक समय में वर्तमान रूप से वर्तती है। कहीं भूतभविष्य में तो नहीं रहती, वह तो वर्तमान में ही वर्तती है। प्रत्येक समय का वर्तमान यदि उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला न हो तो वस्तु का त्रिकाल परिवर्तनपना सिद्ध नहीं होगा। इसलिये प्रतिसमय होने वाले उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप परिणामों में ही वस्तु वर्तती है। जिसप्रकार द्रव्य त्रिकाल सत् है । उसीप्रकार उसके तीनों काल के परिणाम भी प्रत्येक समय के सत् हैं। द्रव्य का वर्तमान प्रवर्तित परिणाम अपने से उत्पादक रूप है, अपने पहले के परिणाम की अपेक्षा से व्यय-रूप है और अखण्ड प्रवाह में वह ध्रौव्य है। इसप्रकार परिणाम उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला है और उस परिणाम में द्रव्य वर्तता है, इसलिये द्रव्य भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला ही है। परिणाम से उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य सिद्ध करने से उस परिणाम में वर्तनेवाले परिणामी के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भी सिद्ध हो जाते हैं। इसलिये कहा है 19 प्रवचनसार-गाथा ९९ २९ कि द्रव्य को त्रिलक्षण अनुमोदना । अनुमोदना अर्थात् रुचिपूर्वक मानना, हृदय से स्वीकार करना । यदि समय-समय के परिणाम की यह बात समझ ले तो पर में भी खटपट करने का अहंकार न रहे और अकेले रागादि परिणामों पर भी दृष्टि न रहे, किन्तु परिणामी अर्थात् त्रिकाली द्रव्य की दृष्टि हो जाये । जिसप्रकार त्रिकाली सत् में जो चैतन्य है वह चैतन्य ही रहता है और जो जड़ है वह जड़ ही रहता है, चैतन्य मिटकर जड़ नहीं होता और न जड़ मिटकर चैतन्य होता है। उसीप्रकार एक समय के सत् में भी जो परिणाम जिस समय में सत् है वह परिणाम उसी समय होता है आगे-पीछे नहीं होता । जिसप्रकार त्रिकाली द्रव्य सत् है उसीप्रकार वर्तमान भी सत् हैं। जिसप्रकार त्रिकाली सत् पलटकर अन्यरूप नहीं हो जाता उसीप्रकार वर्तमान सत् पलटकर भी भूत या भविष्यरूप नहीं हो जाता। तीनों काल के समय-समय के वर्तमान परिणाम अपना स्वसमय (स्व - काल) छोड़कर पहले या पीछे के समय नहीं होते। जितने तीनकाल के समय हैं, उतने ही द्रव्य के परिणाम हैं, उनमें जिस समय का जो वर्तमान परिणाम है वह परिणाम अपना वर्तमानपना छोड़कर भूत या भविष्य में नहीं होता । बस! प्रत्येक परिणाम अपने-अपने स्वकाल में वर्तमान सत् है। उस सत् को कोई बदल नहीं सकता। जिसप्रकार चेतन को बदलकर जड़ नहीं किया जा सकता उसीप्रकार द्रव्य के त्रिकाली प्रवाह में उस-उस समय के वर्तमान परिणाम को आगे-पीछे नहीं किया जा सकता। जिसप्रकार वस्तु अनादि-अनंत है । उसीप्रकार उसका प्रत्येक समय का वर्तमान भी प्रवाहरूप से अनादि अनंत है। वस्तु और वस्तु का वर्तमान आगे-पीछे नहीं है। वस्तु सदा अपने वर्तमान में ही रहती है। कभी भी वर्तमान बिना नहीं रहती, क्योंकि तीनोंकाल में से एक भी समय

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