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प्रवचनसार-गाथा ९९
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पदार्थ विज्ञान सम्यक्चारित्र, वीतरागता या मुक्ति नहीं होती।
त्रिकाली तत्त्व की रुचि की ओर उन्मुख होकर सम्पूर्ण स्वज्ञेय प्रतीति में आया तब परज्ञेय को जानने को ज्ञान की यथार्थ शक्ति विकसित हुई। ज्ञान की जो वर्तमान दशा रागसन्मुख होकर उसे ही सम्पूर्ण स्वज्ञेय मानती थी, वह ज्ञानपर्याय मिथ्या थी, उसमें स्वपरप्रकाशक ज्ञानसामर्थ्य नहीं थी। तथा जब ज्ञान की वर्तमान पर्याय अन्दर की सम्पूर्ण वस्तु को ज्ञेय बनाकर उस ओर सन्मुख हो जाती है तब वह ज्ञान सम्यक होता है और उसमें स्वपरप्रकाशक शक्ति विकसित होती है। __ परिणाम के प्रवाहक्रम में वर्तनेवाला द्रव्य है - जहाँ ऐसा निश्चित किया वहाँ रुचि का बल उस द्रव्य की ओर ढलने से रुचि सम्यक् हो जाती है। उस पर्याय में राग का अंश वर्तता है वह भी ज्ञान के ख्याल से बाहर नहीं है, ज्ञान उसे स्व-ज्ञेयरूप से स्वीकार करता है। इसप्रकार सम्पूर्ण स्वज्ञेय को (द्रव्य गुण को तथा विकारी-अविकारी पर्यायों को) स्वीकार करने से रुचि तो द्रव्य-गुण-पर्याय की ओर उन्मुख होकर सम्यक् हो जाती है और ज्ञान में द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों का सच्चा ज्ञान हो जाता है।
ज्ञेय के तीनों अंशों को (द्रव्य-गुण-पर्याय को) स्वीकार करे वह ज्ञान सम्यक् है, एक अंश को ही (राग को ही) स्वीकार करे तो वह ज्ञान मिथ्या है और सर्वथा राग रहित स्वीकार करे तो वह ज्ञान भी मिथ्या है, क्योंकि राग-परिणाम भी साधक के वर्तते हैं, उन राग-परिणामों को स्वज्ञेयरूप से न जाने तो रागपरिणाम में वर्तनेवाले द्रव्य को भी नहीं माना - ऐसा माना जायेगा।
राग परिणाम भी द्रव्य के तीनकाल के परिणाम की पद्धति में आ जाता है, रागपरिणाम कहीं द्रव्य के परिणाम की परम्परा से पृथक् नहीं है। तीनों काल के परिणामों की परम्परा में वर्तनेवाला द्रव्य स्थित है।
निगोद या सिद्ध - कोई भी परिणाम हो - सभी उत्पाद-व्यय
ध्रौव्यरूप हैं और उन परिणामों में द्रव्य वर्त रहा है। परिणामों की जो रीति है, जो क्रम है - जो परम्परा है - जो स्वभाव है, उनमें द्रव्य अवस्थित है। वह द्रव्य अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणाम-स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता । यहाँ “स्वभाव” कहने से शुद्ध परिणाम ही नहीं समझना, किन्तु विकारी या अविकारी समस्त परिणाम द्रव्य के स्वभाव हैं और वे सब स्वज्ञेय में आ जाते हैं और जो ऐसा जान लेता है, उसे शुद्धपरिणाम की उत्पत्ति होने लगती है। स्वज्ञेय में परज्ञेय नहीं है और परज्ञेय नहीं है - ऐसा जानने में ही वीतरागी श्रद्धा आती है; क्योंकि मेरा स्वज्ञेय परज्ञेयों से भिन्न है - ऐसा निर्णय करने से किसी भी परज्ञेय के अवलम्बन का अभिप्राय नहीं रहा। इसलिये स्वद्रव्य के अवलम्बन से सम्यक्श्रद्धा हो जाती है। सम्पूर्ण द्रव्य परिणामी और उसका एक अंश भी परिणाम सम्पूर्ण परिणामी द्रव्य की अंतर्दृष्टि बिना परिणाम अंश का भी सच्चा ज्ञान नहीं होता। परिणामों की परम्परा को द्रव्य नहीं छोड़ता, द्रव्य उस परम्परा में ही वर्तता है - ऐसे निर्णय से लक्ष्य का बल द्रव्य पर ही है। इसप्रकार इसमें भी द्रव्यदृष्टि आ जाती है।
द्रव्य तो अनंतशक्ति का त्रिकाली पिण्ड है और परिणाम तो एक समयपर्यंत का अंश है - जहाँ ऐसा जाना वहाँ श्रद्धा का बल अनंतशक्ति के पिण्ड की ओर ढल गया इससे द्रव्य की प्रतीति हुई और द्रव्य पर्याय दोनों का यथार्थ ज्ञान हुआ।
प्रत्येक वस्तु अपने परिणाम-स्वभाव में वर्त रही है, उस परिणाम के तीन लक्षण (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक) हैं, इसलिये उस परिणाम में प्रवर्तित वस्तु में भी यह तीनों लक्षण आ जाते हैं, क्योंकि वस्तु का अस्तित्व परिणाम-स्वभाव से पृथक् नहीं है। वस्तु “है" ऐसा कहते ही उसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आ जाते हैं । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बिना “वस्तु हैं" - ऐसा सिद्ध नहीं होता। परिणाम “है" ऐसा कहने से वह परिणाम
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