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पदार्थ विज्ञान
अनुत्पन्न - अविनष्ट होने से उत्पत्ति संहार - ध्रौव्यात्मक हैं, उसीप्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न-अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं।"
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इसमें प्रदेशों की बात दृष्टान्तरूप और परिणामों की बात सिद्धान्तरूप है।
पदार्थों का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वभाव है और उस स्वभाव में सदैव स्थित द्रव्य सत् है। प्रथम इतनी बात तो सिद्ध कर चुके हैं कि द्रव्य की वृत्ति अनादि अनंत अखण्डरूप से एक होने पर भी, उसके प्रवाहक्रम का अंश परिणाम है। वे परिणाम एक-दूसरे में नहीं वर्तते, किन्तु उनका एकदूसरे में अभाव है । उसमें से अब विस्तार करके उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य निकालते हैं। उसमें भी प्रथम क्षेत्र का दृष्टान्त देते हैं।
सम्पूर्ण द्रव्य के एक क्षेत्र को लें तो उसके प्रदेश उत्पत्ति-विनाशरहित है और उन प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक होने से वे अपने-अपने स्वक्षेत्र में अपने से सत् और पूर्व प्रदेशरूप से असत् हैं। वे प्रदेश अपने से उत्पादरूप है और पूर्व के प्रदेश की अपेक्षा से व्ययरूप हैं। इसप्रकार समस्त प्रदेश उत्पाद-व्यय-रूप हैं और सर्वप्रदेशों का विस्तार साथ में लेने से द्रव्य के सभी प्रदेश ध्रौव्यरूप हैं। इसप्रकार समस्त प्रदेश एकसमय में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यरूप हैं ।
यहाँ प्रदेशों के जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कहे हैं, वे क्षेत्र - अपेक्षा से समझना । उक्त कथन के अनुसार समय-समय के परिणामों में भी उत्पादव्यय - ध्रौव्यपना है। अनादि-अनन्त एक प्रवाह की अपेक्षा से परिणाम उत्पत्ति-विनाश-रहित ध्रुव हैं और वे परिणाम अपने-अपने स्वकाल में उत्पादरूप हैं तथा पूर्वपरिणाम की अपेक्षा से व्ययरूप हैं। इसप्रकार समस्त परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप हैं और ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप परिणाम
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प्रवचनसार-गाथा ९९
वस्तु का स्वभाव है।
यहाँ प्रथम समुच्चय क्षेत्र और समुच्चय परिणामों के उत्पाद-व्ययध्रौव्य सिद्ध किये हैं। यद्यपि यह बात अकेले आत्मा की नहीं, अपितु समस्त द्रव्यों के स्वभाव की है।
जिसप्रकार आत्मा के असंख्य प्रदेशों में एक समय में क्षेत्र अपेक्षा से उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लागू होता है, उसीप्रकार आत्मा के प्रवाहक्रम में वर्तने वाले समस्त परिणाम अपने-अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न हैं, पूर्व- रूप से विनष्ट हैं और अखण्ड धारावाही प्रवाहरूप से वे उत्पन्न या विनष्ट नहीं हैं, इसलिये वे परिणाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं।
देखो! अपने-अपने अवसर में समस्त परिणामों के उत्पाद-व्ययध्रौव्य क्रमबद्ध कहकर पूर्ण त्रैकालिक द्रव्य को ज्ञेयरूप से सामने रख दिया है । सर्वज्ञ की और ज्ञानस्वभाव की प्रतीति के बिना किसीप्रकार यह बात भीतर नहीं जम सकती। इसकी प्रतीति में सम्यग्दर्शन है।
द्रव्य के समस्त परिणाम अपने-अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न हैं, पूर्वरूप से विनष्ट हैं और एक अखण्ड प्रवाह की अपेक्षा से उत्पत्तिविनाश रहित ध्रौव्य हैं।
यहाँ परिणामों का स्व-अवसर कहकर आचार्यदेव ने अद्भुत बात की है। जितने एक द्रव्य के परिणाम उतने ही तीन काल के समय और जितने तीन काल के समय उतने ही एक द्रव्य के परिणाम । बस! इतना निश्चित करें तो अपने ज्ञायकपने की प्रतीति हो जाये। द्रव्य के प्रत्येक परिणाम का अपना-अपना अवसर भिन्न है । तीनकाल के परिणाम एक साथ ज्ञेय हैं और आत्मा उनका ज्ञाता है। ऐसे ज्ञेय-ज्ञायकपने में राग नहीं रहा, अकेली वीतरागता ही आई। प्रथम ऐसी श्रद्धा करने से वीतरागी श्रद्धा होती है, पश्चात् ज्ञानस्वभाव में स्थिरता होने से वीतरागी चारित्र