Book Title: Nyayavinishchay Vivaranam Part 2
Author(s): Vadirajsuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रस्तावना न्यायविनिश्चयक प्रथम भामर्म अन्यकारी सम्बन्धमें लिखा गया है। अतः इस भागम मात्र विषयपरिचय दिया जा रहा है। कारिकासंख्या न्यायविनिश्चयविवरण प्रथम भागका प्रस्तावनामैने मलकारिकाओंकी संख्या निश्चित करने का प्रयत्न किया था किन्तु उसमें निम्नलिखित संशोधन अपेक्षित है। भूलालोकों में अम्वर श्लोक, जो कि यूसिके बीच बीच में आते हैं, और संग्रहश्लोक, जो कि वृत्तिमै कहे गये अर्थका संग्रह करते है, भी आते हैं। इन सबको मिलाकर न्यायविनिश्चय गूल में कुल १४. इलोक होते हैं: प्रथम प्रस्ताबम १६०६, द्वितीय प्रस्तावमें २१६३ तथा मतीय प्रस्ताव ५५ । विवरणके नोनों भागों में इलाकोंके नम्बर अशुद्ध छपे है, अनुक्रममें भी अशुद्वियों हो गई है। अतः इस ग्रन्थके प्रारंभमें मूस श्लोक एक साथ छाप दिये है। उनमें अन्तरालाक और संग्रहश्लोकीका विभाग भी कर दिया है। अनुक्रमकी अशुद्धियों को शुद्धिपत्र में देख लेना चाहिये । विषय-परिचय प्रमाणविभाग प्रथम प्रस्ताव में प्रत्यक्षका सांगोपांग वर्णन करनेके बाद इस भागके दो प्रस्तावों में परीक्ष प्रमाण का वर्णन किया गया है। भागम परम्पराम प्रमापा को ही विभाग इमिगोचर होते हैं। इस परम्पराम प्रमाणताका आधार बिलकुल शुदा है। आत्ममात्रसापेक्षज्ञान प्रत्यक्ष और इन्द्रिय मन आदिकी अपेक्षा रखमेघाला ज्ञान परोक्ष होता है। इस परिभाषासे अवधिज्ञान मनापर्यय ज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष कोटिम तथा शेष सब ज्ञान परोक्ष कोटिमें आते हैं । पाँच ज्ञानामे मति और भूत परोक्ष हैं । तत्त्यार्थसूत्र (१३) में मतिज्ञानके पर्यायरूपस मति, स्मृति. संज्ञा. चिन्ता और अभिनियोधकी मिनाया है। उसका तात्पर्य बताते हुए टीकाकारीने लिखा है कि ये सब ज्ञान चूंकि मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमस होते है अतः मतिज्ञानमें शामिल है। जहाँतक स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (प्तक) और अभिनिबांध (अमुमान )का प्रश्न यहाँ तक इह परोक्ष मानने में कोई आपत्ति नहीं है किन्तु मति अर्थात पाँच इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको परोक्ष कहनेमें लोकबाधा और प्रचलित दार्शनिक परम्पराओं का स्पष्ट विरोध होता है। सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ भी "अक्षम् अभं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञानही फलित होता है। ऐसी दशाम जैन परम्परा की प्रत्यक्ष परोक्षकी यह परिभापा बिलकुल अनोखी लगती थी और इससे लोक-म्यवहारमें असंगति भी आती थी। आगमिक कालमै ज्ञानके सम्यस्व भौर मिथारपके आधार भी भिसही थे। जो ज्ञान मोक्षमार्गोपयोगी होता था यही सम्यक ज्ञान कहलाता था। लोक में सम्यग्ज्ञान रूपसे प्रसिद्ध यानी वस्तुका १ पृ. ३३ । २ "निराकारस्यादयः अन्तररलोकावृत्तिमध्यवर्तित्वात, निमुखेत्यादिधातिकव्याख्यानवृतिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी श्लोकाः संग्रहश्लीकास्तु दृत्युपदर्शितस्प बार्तिकार्थस्य संघइपय इति विशेष"न्यायचि० वि०प्र० पृ. १२९। ३ देखो तत्वार्थवार्तिक, क्लोकवार्तिक आदि ।

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