Book Title: Nyayavinishchay Vivaranam Part 2
Author(s): Vadirajsuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ न्यायविनिश्चयविवरण व्यवाहार बुद्धि, करिषत धर्मधर्मान्यायसं चलता है, किसी वास्तविक धर्माकी सत्सा नहीं है। अकलक देवने (न्यायधिश२) बताया कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष वास्तविक परपदार्थका प्राहक उसी तरह अनुमान भी वस्तुभूत अर्थको ही विपय करता है । यह ठीक है कि प्रत्यक्ष उसे स्फुट और विशेषाकार रूपसे जाने और अनुमान उसे अस्फुट एवं सामान्याकार रूपसे, पर इतने मासे एकको वस्तुविषयक और सरेको अबस्तुविषयक नहीं कहा जा सकता। एक ही सामान्यविशेषात्मक वस्तु है और वह पूरी की पूरी प्रत्यक्ष या अनुमान किसी भी प्रमाणाकी विषय होती है। साध्य-साध्य अर्थात् सिद्ध करनेके योग्य । जो पदार्थ अभी तक असिस् है वही साध्यकोटिम आता है। असिद्ध के साथ ही साथ सात्यको इष्ट और शमय अर्थात् अयाचित भी होना चाहिए । जो घादीको इष्ट नहीं है यह साध्य नहीं हो सकता। इसी तरह जो प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोकमतीति और स्ववचन आधिमे बाधिन है वह साध्य नहीं हो सकता। सास्पर्य यह कि इष्ट, अबाधित और असिख माध्य होता है और अभिष्ट, बाधित और सिद्ध साध्याभाख । इसका अर्थ 'उक्त नहीं है अनुक्त भी पदार्थवादीको इट हो सकता है और साध्य बन सकता है। साधन-जैनासायाने प्रारम्भसे ही साधनका एक माय लक्षण माना है अधिनाभाव या अन्यथानुपपसि । अधिनाभाव अश्चत यिना-साध्यके अभाव श्र-नहीं भाव-होना। याने साध्यके अभाबमें नहीं होना । अन्यथानुपपत्ति इसीका नामान्तर है। यह अविनाभाव प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे होनेवाले तर्क नामके प्रमाणसे गृहीम होता है। यद्यपि डाने भी अधिनाभावको साधनका रवरूप कहा है पर उसकी परिसमाप्ति के पक्षधर्मग्य, सपक्षसाव और विपक्षम्यावृत्ति में मानते हैं। यह रूप्य हेतुका स्वरूप है। इसका विदरण करते हुए आचार्य धर्मकीर्ति ने लिखा है कि लिङ्गकी अनुमेयमें सत्ता ही होनी चाहिए, और सपक्षम ही सत्ता तथा विपक्षमे अससा ही। इसकी आलोचना करते हुए अकलकवेवने लिखा है कि वरूप्यमें केवल विपक्ष व्यावृत्तिही हेसका लक्षण होती है पक्षधर्मच और सपनसम्ब नहीं। एक महसके बाद रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा क्योंकि इस समय कृसिकाका उत्य है। इस पूर्वघरानुमानमें पक्षधर्मत्व नहीं है फिर भी अविनाभाषके कारण यह सहेतु है। इसी तरह 'सर्थ क्षणिक सत्यात्' गौतोंके इस प्रसिद्ध अनुमानमें सपक्षसच न रहनेपर भी जमकता स्वयं उन्हींने मानी है। श्रतः अविनामात्र ही एकमात्र हुनुका स्वरूप हो सकता है। नैयायिकरम्यायचा. १५) बरूष्य के साथ अबाधित-विपयस्व और असत्प्रतिपक्षावको भी हेमुका आवश्यक अङ्ग मानकर पश्चरूपमें अविनाभावकी परिसमाप्ति करते हैं। इनमें प्रवाधितविषयाच तो पक्ष के अबाधित विशेषणसे ही गतार्थ हो जाता है क्योंकि जिस हेसुका अधिनाभाष प्रसिद्ध है उसके रघरूपमै किसी प्रकारकी याचाही सम्भावना ही नहीं की जा सकती। अधिनाभा हेनुका समान बलशाली कोई प्रतिपक्षी भी सम्भव नहीं है अतः असत्प्रतिपक्षस्य रूप भी निरर्थक है । 'अद्वैतवादियों के प्रमाण हैं इष्टसाधन और अनिष्ट ठूषण अन्यथा नहीं हो सकते' इस अनुमानमें पक्षधर्मयके अभाव भी सत्यता है। क्योंकि इस अनुमानके पहिले प्रमाण नामकी बस्तु अतवादियोंके यहाँ प्रसिद्ध ही नहीं है, जिसमें रहकर हेतु पक्षधर्मवाला बनता । अर्चटकृत हेसुबिन्दुटीका (पृ. २०५) में शातत्व और विवक्षतकसंख्यत्व मामले अन्य दो रूशंका भी पूर्व पक्ष के रूपमें उल्लेख मिलता है। इनमें शासस्व रूप इसलिए अनावश्यक है कि हेतु ज्ञात होकर ही साध्यका अनुमापक होता है। यह एक साधारण बात है। इसी तरह विवक्षितैकसंख्यत्व भी अपनी कोई विशेषता नहीं रखता । कारण अधिनाभावी हेतुका द्वितीय प्रतिपक्षी सम्भावित ही नहीं है जो विवक्षित हेतुकी एक संख्याका विघटन करे । धर्मकीर्तिके टीकाकार कर्णकगीमी भादिने रोहिणीके उपका अनुमान करानेवाले कृत्तिकोदय हेतुमे काल या आकाशको धर्मी बनाकर पक्षधर्मस्व घटानेका प्रयास १ न्यायवि० २।५।७ । २ सघी० दलोक १३-१४, (अकलङ्कअन्यत्रय)। ३ प. बा. स्ववृ०टी० पृ ११ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 521