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मुक्त दशा न रहकर अन्तमे छूट
मान रहता I
प्रस्तावना
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जाती हैं। मुक्तदशा में अमका केवल शुद्ध सचिदानन्द रूप ही प्रकाश
श्रमण परम्पराका मूल आधार ही है धर्म में वीतरागी और तत्वज्ञानी पुरुषका प्रामान्य इसका विचार है कि पुरुष अपनी साधना द्वारा पूर्ण-वीतरागी और निर्मज्ञानी हो सकता है तथा मोक्षादि साक्षात्कार कर सकता है। वह अपने साक्षात मोक्षोपायधर्मका उपदेश देता है। यही उपदेश आगम कहलाते हैं। यह परम्परा पुरुषके सर्वोत्कृष्ट विकासमें विश्वास रखती है और प्रत्येक मनुष्य को साधनानुसार 'विकसित होनेका अवसर भी देती है। किसी तीर्थंकर था बुद्धको केवलज्ञान और बीधि प्राप्ति होनेपर जैसा धर्म और धर्म जैसे अद्रिय पदार्थोंका साक्षात्कार होता है उसी प्रकारका साक्षा कार अन्य साधकों को भी हो सकता है। यानी इस परम्परामें धर्म किसी वेद जैसे प्रथके अधिकारमें ब नहीं है, किन्तु वह भीतरागी तत्वज्ञानी मनु free होता है। धर्मने लिखा है कि वु चनुयत्यका साक्षात्कार करते हैं और उत्तम सत्यवानी धर्म में अपने अनुभवके द्वारा असिम प्रमाण भी हैं। वे करुगा करके कपासन्त संसारियां उद्धारके लिए स्वष्ट मार्गका उपदेश करते हैं। कोई पुरुष संसारके अन्य सब पदार्थोंको जानें या न जानें हमें इस निरर्थक बासे कोई प्रयोजन नहीं। हमें तो यह देखना है कि वह इष्ट तव मानी धर्मका साक्षात्कार करता है था नहीं ? धर्मज्ञ है या नहीं? मोक्षमार्ग में अनुपयोगी कारे-मकोड़ों की संख्या परिज्ञानका धर्मसे
संबंध है? धर्मकीर्ति सिद्धान्ततः सर्वज्ञताका विरोध न करके उसे निरर्थक अवश्य कह देते हैं ? के कुमारिलसे कहते हैं कि कोई मनुष्य संसारके सच पार्थीका साक्षात्कार करे या न करें पर उसे धर्मश होना चाहिए। ये अपने सर्वज्ञता समर्थक समशील से कहते है कि मीमांसकोंके सामने चिकालत्रिलोक रूप सर्वापर शोर नहीं देना चाहिए। असली विवाद तो धर्म है कि धर्मके धर्मको प्रमाण माना जाय या वेदको १ तात्पर्य यह कि जहाँ कुमारिलने प्रत्यक्ष से होनेवाली धर्मझताका निषेध करके धर्मके विषय में वेदका ही अव्याहत अधिकार सिद्ध किया है वहाँ धर्म से ही
धर्मका सरकार मानकर अर्थात् प्रत्यक्षसे होनेवाली धर्माका समर्थन करके जीतरागी धर्मश पुरुषक ही धर्म अन्तिम प्रमाण और अधिकार माना है धर्मका लिंक टीकाकार प्रज्ञाकरने सुगतको धर्मशके साथ ही साथ सर्वश श्रिकालवर्ती यावत् पदार्थोंका ज्ञाता भी सिख किया है और लिखा है कि सुगतकी
१ ‘“तायः स्वदृष्टमार्गात्ति:पल्या वक्ति नानृतम् ।
दयालुत्वात् परार्थ सर्वारम्भाभियोगतः ।
तस्मात् प्रमाणं तायो वा चतुःसत्यप्रकाशनम् ॥ प्र० वा० १० १४७४८
२ " तस्मादनुष्ठेयमतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयस्वर साम्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविधः न तु सस्य वेदकः ॥
दूरं पश्यतु मामा वा तत्वमिष्टं तु पश्यतु ।
प्रमाणं दूरदर्शी वेदेतत् धनुषामहे ॥ प्र० पा० ११३१-२५
३" सर्व जानातु सर्वस्य वेदको न निषिध्यते । "प्र० कार्तिका ल० पृ० ५२ ।
"भावनागतो शानं बाह्यानामपि मावि चेत् । तदेतदस्माभिः सर्वाकारं तु तामिनाम् ॥
...... ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसम्भवः ।
समादितस्य सकल थकारतीति विनिश्चितम् ॥ २० पानिका० पृ० १२९
४"सर्वेषां वीतरागाणामेतत् कस्मान्न विते ।
रागादियमात्रे हि तैर्यत्नस्य प्रवर्त्तनात् ॥