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न्यायविनिश्चर्यावरण
नव-नवीत्पन्न सरश शब्दाम एकत्वका आरोप करके होता है और इसलिए भ्रान्त है। जैसे कि काटे गये नख और केशों में "ये वही नख और केश है" इस प्रकारका प्रत्यभिजान नापत सरश नरव-शाम मिष्या एकत्र भान करनेके कारण होता है। इस तरह सादृश्यमूलक एकत्वारोपसे यदि शाहको नियमाना जाता है सो विजाली दीपक आदि सभी पदार्थ नित्य सिद्ध हो जायगे । हाम्न के उपाहानभूत पुरल इतने सूक्ष्म है कि न तो वे स्वयं चक्षु आदिसे दिखाई देते हैं और च उनकी उसर पर्याप ही उपलब्ध हो पाता है। क्रमसे उच्चरित शब्दों में ही परवाक्य आदि संज्ञाएँ की जाती है । यद्यपि शब्द छीरि-तरसन्मापसे समान वातावरण में उन्पस होते हैं पर उनमें जो शब्द श्रीनसे सनिकृष्ट होता है वहीं उसके द्वारा सुना जाता है। श्रोग्र स्पर्शनेन्द्रियमी तरह प्राप्त अर्थको ही जानता है अप्राप्तको नहीं । इसी धावणमध्यस्वभाव (मध्यमें सुनाई देने लायक) शवदर्भ इच्छानुसार संकेत ग्रहण करके अर्थबोध होता है। शन में वाचक शक्ति और अर्थ में पाच्य शकि, इस बाच्य-वाचकशक्तिके आधारसेही संकेत ग्रहण किया जाता है और स्मरणसे शब्द व्यवहार सलता है। कहीं शब्दको सुनकर उसके अर्थका स्मरण अाता है तो कहीं अर्थ को देखकर तववाचक शब्दका स्मरण | इसीलिए शब्दकी शवृति यहधा सकितिक मानी गई है।
शम्न् और अर्थ के इस कृत्रिम संकेतको अपौरुषेय नहीं माना जा सकता । संसारमै असंन्य भाषा है. उनके अपने जुमे-जुने संकेत हैं । बालक अपने माता-पिता तथा गुरुजनों और घ्यबहारियों के द्वारा उस-उस भापाके शरमों में संकेत ग्रहण करता है। शिक्षासंस्कार उसी संकेत-ग्रहणका एक परिपक रूप है। परम्पराकी रष्टिस यह सम्बन्ध बीजांकर संततिकी तरह अनादि भले ही हो, पर वस्तुतः वह पुरुषकृत ही। प्रलयकासके बाद जो भी शरीरधारी आत्माएँ अवशिष्ट रहती हैं, घे अपने पूर्व प्रकारके अनुसार संतति में उन संस्काराका धीरे-धीरे वपन करती है। और इस तरह संततिक्षमसे संकेत विकसित और प्रसारित होता है। कोई अनादिषित इंचर मप्रथम संकेत प्रहा कराता हो या इसीके सिप अघसार केला हो यह बात बरतके श्रनादिसिद्ध स्वरूप प्रतिशत है। यही कारण है कि भार सांकेतिक कहीं जाती है और वे यथासंकेत माधोंके भादान-प्रदानका माध्यम होती हैं। वे अमली और बिगड़ती रहती है।
प्रमाणपका फल
जरमा-प्रमिति (अज्ञाननियन्ति) में साधकमम होनेके कारण सम्बग्ज्ञानको प्रमाण माना है तब उसका साक्षात् फल तो अज्ञाननिवृत्ति ही है। प्रमाण उत्पन्न होकर म्वविषयक अज्ञानको हटाकर उसके यथावतस्वरूपका प्रतिभास कराता है। अज्ञाननियुत्ति अर्थात् धिययक सम्यग्ज्ञान हो जाके बाद
यका त्याग, उपादेयका उपादान और उपेक्षणीय पदाधों में उपेक्षा ये उसके परम्परा फल हैं। बीतशमीकेवल झानसे हेय-उपायमें प्रवृत्ति निन्ति नहीं होती। उसके सो समरत पदार्शमें उपेक्षाभाष रहता है। वह केवल ज्ञानी, अपने निर्मल ज्ञानके द्वारा पाकि यथावत् स्वरूपका द्रष्टा है। इतर संसारी प्राणी अपने हितमै प्रवृत्ति करके उसे मात करते हैं और हितसे निवृत्त होकर उम्मै छोदते हैं।
ये दोनों प्रकारके फल आमासे भिा भी और अभिन्न भी। प्रमाण कारण है और फल वार्य, अतः कार्य-कारणकी स्टिसे उनमें भेद है। जो आमा प्रमाणरूपसे परिणत होता है अर्थात जिस आत्मामें प्रमाण उत्पन होता है उसीका अज्ञान हटता है, वही शित, प्रवृत्ति करता है, वही अहितसे निवृत्ति करता है और वही उपेक्षणीयोंमै उपेक्षा करता है याने सटरथ रहता है। इस तरह एक आध्माकी दृष्टि से प्रमाण और फल अभित्र हैं। इस दृष्टिसे प्रमाणके विषय उपादेव, हेम और उपेक्षणीय इन तीन भागाम विभाजित हो जाते हैं। उपेक्षणीय विभाग भी हेप और उपादेयकी तरह अपना अस्तिाव रखता है। उसे प्रहण नहीं करते इसलिए हय कोटिम शामिल करना उचित नहीं है। क्यारक जिस प्रकार बह हितबुद्धि से ग्रहण नहीं किया जाता उसी प्रकार वह अहित बुद्धिसे छोहा भी तो नहीं जाता। इसलिए उसे हेय कोटिमें मामिल नहीं किया जा सकता । अतः उसे स्वतंत्र ही मानना चाहिए। सर्वथा अभेद माननेपर
१ देखो परीक्षामुख अ०५।१-३ तथा ६।६७-७१ ।