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न्यायविनिश्चयविवरण
मुक्त हो चुकी हैं उनका भी स्वाभाषिक शुद्ध परिणमन ही होता है। और धर्मादि प्यांकी तरह उनमें भी अगुरुलषु गुणकृत ही उत्पाद और व्यय होते हैं। संसारी सामाओम संसारकालतक कर्मबद्ध होनेके कारण विभाषपरिणति होती है। एक बार मुक्त हो जानेके बाद याने विभाषपरिणतिकी श्रृंखला टूट जानेके बाद फिर विभाव-परिणतिका कोई कारण नहीं रहता। संसारी आत्मामें कर्मजीव और पुदल दोनोंके निमित्तसे विकार होता है। पुदल द्रव्य शुद्ध हो जाने पर भी भशुद्ध हो जाते हैं और अशुद्ध होकर भी शुद्ध । ये अशुद्ध जीवसे प्रभावित होते हैं और परस्पर पुद्र सोस, अन्ततः कर्मबद्ध आत्माओं से भी। पुरल परमाणुओंके विविध विपिन स्कन्धोंका रक्ष्य रूप ही संसार है।
चौख दर्शन में यदि वस्तुतः चित्त-सम्सतिके सर्वथा उच्छेद होनेको निर्माण माना है तो उसकी यह एक मौलिक भूल है क्योंकि उस चिस-सम्ततिका कोई मौलिकत्व ही नहीं यदि यह कभी भी उरिक हो जाती है।
व्यके सामान्य विशेपास्मकरध और उत्पादस्ययधीरयात्मकरवकी विशेष पर्चा मैंने इसी प्रन्यके प्रथम भागकी प्रस्तावनाम विशेषरूपसे की है। इसी सरह सप्तभती और स्यावावकी वर्षा भी वहीसे पह लेनी चाहिए।
हिम्द विश्वविद्यालय
बनारस २६३२५५
-महन्द्रकुमार भ्यायाचार्य