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प्रस्तावना
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नितान्त असंगत है। किसी रचनाके कर्माका स्मरण न होनेसे हम भले ही उसके विशेष कर्तृवमें सन्दिग्ध ही पर उसे सर्वथा अकक या अपौरुषेय नहीं कर सकते। अनेक ऐसे जीर्ण-शीर्ण मकानोंके खण्डहर हमारे रटिगोचर होते है, जिनके बनाने और बनवानेवालोंका में स्मरण तो क्या, पता भी नहीं है, उन्हें देखकर किसीको भी अपौरुषेय बुद्धि नहीं होती। कोई भी सार्थक शम्न पुरुष-प्रयत्नके बिना न तो उधरित ही हो सकता है और न अपने विविध-विधक्षित अर्थोंका परिज्ञान ही करा सकता है। यदि पुरुषमें घीतरागता और तरवशताका विकास किसी भी तरह संभव नहीं है तो ऐसेही पुरुषों के द्वारा किये गये वेदके व्याख्यानमें प्रमाणता फैसे आ सकती है ! “मेरा यह अर्थ है, यह नहीं" इस पातको घोषणा वैदिक 'शब्द तो नहीं कर सकते, अर्थकी व्याख्या तो पुरुषके ही अधीन है और आपके मत्तसे सभी पुरुष रागी दूपी और अज्ञानी है। अतः जिस पुरुषके दोषों के अरसे बेदको अपौरुषेय कल्पित किया गया था, आखिर व्याख्यामके लिए उसीकी शरणमें पहुँचना पड़ता है। कोई भी शब्ठ स्वतःप्रमाण नहीं हो सकता। उसकी प्रमाणताके लिए यह तलाश करना जरूरी हो जाता है कि उसका वक्ता कौन है? फिर वेदमें उन-उन युगोंके ऋषियों के नाम गोत्र प्रवर, चरण आदिके उल्लेख मिलते हैं। अनेक छन्दोंसे उसकी रचना है। विधेय और हेयमें प्रवृति और निवृसिका उपदेश है। अतः ऐसी प्रति, मनुस्मृति आदि स्मृत्तियों की तरह सकतृक है अकर्मक नहीं। यदि अनादि होनेके कारण या काका स्मरण न होनेके कारण वेदको प्रमाण माना जाता है तो बहुतसी गालियों तथा अपशब्द ऐसे हैं जिनके काका स्मरण नहीं है और न यही पता है कि वे कबसे चाले हैं, वे सभी प्रमाणकोठिम आ जायेंगे। वि. पवाकादिक पदमागों में कोई भी शिशीता नहीं दिखाई देती जिससे उन्हें अपौरुषेय कहा जाय । कठिनतासे उधारण होना, अनेक संयुक्त अक्षरोंका प्रयोग आदि ऐसी बात है जो लौकिक पदधाक्यों में सहज ही की जा सकती है। वंदके अध्ययनको सदा वेदाध्ययनपूर्वक माननेमें कोई प्रमाण नहीं है। जिन ऋषियोंने अपने योगबल और निर्मल ज्ञानसे तश्वका साक्षात्कार किया, उन ऋषिषों द्वारा रची गई वेदकी शाखाओंको उनके कर्तृवसे वंचित नहीं किया जा सकता। इस कालमै वेदका का कोई नहीं है इसलिए अतीतकालमें भी न रहा होगा यह तर्क अस्थम्त थोथा है । इस तरह तो अनेक इतिहाससि तथ्योंका लोप हो जायगा । वेद अनादिसिद्ध ईश्वरके निःश्वास है या उसके द्वारा प्रतिपादिन है यह केवल स्तुति है।
आजके विज्ञानने अपने प्रयोगोंसे शब्दको भौतिक और उत्पाद-विनाशवाला सिद्ध कर दिया है। यह ठीक है कि शब्द उत्पन्न होकर अमुक कालतक वातावरणमें गंजता रहता है और अपने सूक्ष्म संस्कारों से वातावरणको कुछ काफतक प्रभावित रखता है, पर वह सदा एक रूपमें नहीं रहता और न नित्य ही है। पुहलके अनन्त विचिन परिणमन होते है । वाद भी उन्हीं मेंसे एक है।
धर्ममें वेदको अन्तिम और निधिसत्ता नहीं माना जा सकता क्योंकि धर्म मनुष्यकं आचारविचारोंका शोधन करनेवाला तथा उन्हें साधनोपयोगी बनानेवासा होता है जो अनेक अनुभषी और वीतरागियोंकी साधनासे विकसित होता रहता है। युगकी आवश्यकताभोंके अनुसार युगपुरुष उसका निर्माण करते हैं और मानवको दानश्च होनेसे बचाते हैं। वेइमें प्रतिपादित अनेक हिंसात्मक क्रियाकाण मनुष्य के आधार और विचारको कितना उन्मत बना सकते हैं यह एक विचारणीय प्रइन है। इतिहासकी किसी सीढ़ीपर उनकी उपयोगिता रही भी हो पर वे सब निकालाबाधित सामान्य धर्मका स्थान नहीं से सकते । मामय समाज में समान अधिकार और समान अबसरको स्वीकार किये बिना उसका स्थिर सामाजिक निर्माण नहीं हो सकता । अतः अहिंसाके आधारपर समताकी उपासनाका मार्ग ही वैयक्तिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में सामान्यधर्म बन सकता है। और ऐसे धर्मको मूल सिवान्तरूपसे प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र ही प्रवचनके पदपर प्रतिष्ठित हो सकते हैं। एक अहिंसाही बह कसौटी जिससे विविध आचारविचारों में धर्मरवकी जाँच की जा सकती है। यही विचारोंका
१ "अयमों नायमर्थ इति शन्दा वदन्ति न ।
कल्प्योऽयमर्थः पुरुषैस्ते च रागादिविप्लुताः ||"-प्र वा २।३१२ ।