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प्रस्तावना
दृष्टान्त मायका प्रतिपत्ति के लिए भी उपयोगी नही हैं ग्याकि बिनाभाया मायनस हा साध्यको मिद्धि हो जाना है। व्याहि स्मरण लिग मा उसको आवश्यकता नहीं है. क्योंकि अधिनाभावी हुनुके प्रयोगसे ही व्यासिका स्मरण हो जाना है । अबिनाभावके निश्चय लिाग भी उसकी आवश्यकता इसलिए नहीं है कि विपक्षमं बाधक प्रमाणके द्वारा ही अधिनाभावका निश्चय हो जाता है। फिर, दृष्टान्त एक ध्यक्षिका होता है और व्याति होती है सामान्यथिपयक, अतः यदि उस रातमें प्यासिविषयक संशय हो जाय तो अन्य दृष्टान्तकी आवश्यकता पड़ सकती है। इस तरह अनवस्था पण आता है। यदि केवल दृशस्तकर अथन किया जाम, तो उससे पक्षमे साध्यका सन्देह ही पुष्ट होता है। यदि ऐसा न हो तो सन्देहक निवारणके लिए उपनय और निगमनका प्रयोग क्यों किया जाता? अतः पक्षधर्मधमौसमुदाय और हेतु में वो ही अवयय अनुमानके हो सकते है।
बौद्ध विद्वानोंके लिए केवल एक हेतुका प्रयोग मानकर भी उसके स्वरूप में उदाहरण और उपनयको अन्तभून कर लेते हैं। उनके हनुका प्रयोग इस प्रकार होता है-'जो जो धूमयाला है वह यह अग्निवाला है जैसे रसोईघर, उसी तरह पर्वत भी धृमवाला है। इस प्रयोग में हेलके रूप्यको समझामेके लिए अन्धय दृष्टान्त और व्यतिरेक दृष्टान्त आवश्यक होता है, और हेतुके समर्थन के लिए दृष्टान्तके साथ ही साथ उपनय भी आवश्यक है। हेनुकी साध्य के साथ व्याहि सिद्ध करके उसका अपने धर्मी में सहाथ सिद्ध करना, समर्थन कहलाता है। इस तरह बौदके मतमें हनु, उवाहरण और उपनय ये नीन अवयव अनुमानके लिए आवश्यक होते हैं।
वे प्रतिज्ञाको आवश्यक नहीं मानते । क्योंकि के यल प्रतिज्ञाके प्रयोगसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती और प्रस्ताव आदिसे उसका विषय ज्ञात हो जाता है। किन्तु यदि प्रतिज्ञाका शब्दाने निर्देश नहीं किया जाता है. तो हेतु किसमें साध्यकी सिद्धि करेगा? तथा उसके पक्षधर्मध्य-पक्षमें रहनेका म्वरुप काम समर्थित होगा 'सथा चार्थ धूमवान्' इस उपनय-उपसंहार घाक्यम 'अय' शब्दके द्वारा किसका बांध होगा? यदि हेतुको कहकर उसका समर्थन किया जाता है तो प्रतिज्ञाके प्रयोग करने में क्यों हिचक होती है। अतः साध्य धर्मके श्राधारविषयक संदेहको हटाने के लिए पक्षका प्रयोग आवश्यक है।
नयायिक अनुमानके प्रतिज्ञा, हंगा, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयत्र मानते हैं। बीड प्रतिझाके प्रयोगको अनावश्यक कहकर उसके उपसंहार रूप निगमनका खण्डन करते हैं। वमनुतः साभ्यकी सिद्धि के लिए जिसकी जहाँ सिसि करना है और जिसके द्वारा सिद्धि करना है उन प्रतिज्ञा और हेतुके सिवाय किसी सीसरे अवयघकी कोई आवश्यकता ही नहीं है । पक्षम हे के उपसंहारको उपमय तथा प्रतिज्ञाके उपसंहारको निगमन कहसे है। ये केवल याक्वसौन्दर्य या कही हुई वस्तके दृष्टी-करणके लिए भले ही उपयोगी ही, पर अनुमानके अत्यावश्यक अंग नहीं हो सकते। अतः धमां, साध्य और साधन अयघा अभेद विघक्षामै पक्ष और हेतु ये दी ही अनुमान अंग हैं।
धर्ती-धर्मा कहीं प्रमाणसे सिन्न होता है कहीं विकरुपये और कई प्रमाण और विकल्प दोनोंसे । अस्तिरक्ष या नास्तिस्य साध्य रहनेपर धमी विकल्प सिद्ध होता है, क्योंकि ससा या असत्ताकी सिद्धिके पहले धर्मीकी केवल प्रतीति ही होती है, उसमें प्रमाणसिद्धता नहीं होनी । धूमादिम् अग्नि आदिकी सिद्धि करते समय धर्मी प्रमाणसिद्ध है। सम्पूर्ण शब्दामें अनित्यत्व सिद्ध करनेके समय कि वर्तमान शय प्रत्यक्ष सिद्ध है और अतीत, अनागत शब्द विकल्प सिद्ध हैं, अतः शब्द धर्मी उभयसिद्ध होता है।
बौद्ध' भनुमानका विषय रिपत सामान्य मानते हैं, वास्तविक स्वलक्षण नहीं। धर्म और धर्मी यह व्यवहार भी उनके मससे काल्पनिक है। आचार्य विशनागने कहा है-कि समस्त अनुमान अनुमेय
१प्रवा०३२६ । २ न्यायसू०३२ ३ देखो प्रावा. स्वर पृ०२४।