________________
प्रस्तावना
प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे उत्पन्न होनेवाला और साध्य-साधनके अधिनाभाव सम्बन्धको ग्रहण करनेवाला ज्ञान तर्क है। संक्षेप में प्यासिपाही ज्ञानको तर्क कहते हैं। व्याप्ति सोपसंहारवाली होती है। जो भी धूम है वह कालत्रय और निलोकम अग्निसे ही उत्पन्न होता है, अग्निके अभाचर्म कभी भी नहीं और कहीं भी नहीं हो सकता यह सर्वोपसंहारी अधिनाभाष तक प्रमाणकी मर्यादाम है। प्रत्यक्ष प्रमाण रसोईघर आदिमें अनेक चार धूम और अग्निके सम्बन्धका प्रत्यक्ष भले ही कर ले पर उस सम्बन्धकी कालिकता और सार्वत्रिकताका ज्ञान उसकी सीमा नहीं है क्योंकि वह सविहित पदार्थको जानता है और अविचारक है। अनुमानके द्वारा इस अधिनाभावका ग्रहण तो इसलिए सम्भव नहीं हैं कि अनुमानकी उत्पत्ति ही अधिनाभावके ग्रहणके दाद होती है। एक अनुमानकी व्याप्ति यदि अनुमानान्तरले गृहीत की जाय तो अनुमानान्तरकी व्यासिके लिए मृतीय अनुमानकी तथा मृतीय अनुमानकी प्याप्तिके लिए मतुर्थ अनुमानकी आवश्यकता होमेसे अनवस्था दृषण आता है।
बौद्ध निर्विकल्पक प्रायक्षके बाद उत्पन्न होनेवाले विकल्पक ज्ञानको प्यालिग्राही कहते है। किन्न जय विकल्पक ज्ञान स्वयं अप्रमाण है तो उसके द्वारा गृहीत व्याप्तिमें कैसे विश्वास किया जा सकता है ? और यदि प्यातिप्राही विकल्प प्रमाणा है तो उसे प्रत्यक्ष भऔर अनुमानसे भिन्न नीसरा प्रमाण मानना होगा।
न्यायसूत्र (191)में तर्कको पृथक पदार्थ मानकर भी उप्त प्रमाण नहीं माना है। न्यायभाष्य (1) लिखा है कि तर्क न तो प्रमाण है और न अप्रमाण । वह तो प्रमाणका अनुम्राहक है इसीलिए तत्वज्ञानके निमिक्त उसकी कल्पना की जाती है किन्तु ऐसे किसी पदार्थसे जो स्वयं प्रमाण नहीं है प्रमाण का अनुग्रह कैसे हो सकता है? तर्क स्वयं अधिसंचासी है और अविसंवादी अनुमानका जनक भी, अतः वह स्वयं प्रमाण है। अग्नित्वेन समस्त अग्नियोंका और धूमन्चेन यावत् धूमौका शान करके सामान्य लक्षणा प्रत्याससिके द्वारा अलौकिक प्रत्यक्षसे ज्याप्तिका प्रहण मानना भी उचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है। एक अग्निके प्रत्यक्षके द्वारा उस अग्नि पक्तिका जैसा और जितना विशद प्रतिभास होता है वैसा और उतना तासहश परोक्ष अन्य अग्नि व्यक्तियोंका नहीं। परोक्ष अग्नि और घूम व्यक्तियोंका ज्ञान अस्पष्ट होनेसे प्रत्यक्षकी प्लीमा नहीं आ सकता और यदि सामान्यलक्षणा प्रयासत्तिके द्वारा रसोईघरकी अग्निकी तरह पर्वतकी अग्निका भी स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है तो अविनाभाष सम्बन्धके ग्रहण करने की और अग्मिके अनुमान करनेकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती। एक अर्थ में तो ग्याप्तिग्रहणकाल में सभी व्यक्तियों को सर्वशताका प्रसंग भी प्राप्त होता है। अतः सम्पूर्ण रूपसे साध्य और साधनों के सोंपसंहारी सम्बन्धको ग्रहण करनेवाले तर्क को स्वतंत्र प्रमाण मानना ही उचित है। यह तर्क साध्य साधन विषयक प्रत्यक्ष-उपहम्भ और साध्याभाघ तथा साधनाभावविषयक अनुपलम्भसे उत्पन्न होता है। उएलाम ममुगलम्भ और साहय प्रत्यभिज्ञान आदि तक की सामग्री है। इस सामग्रीसे उत्पन्न होनेयाला म्यातिमाही बोध अधिसंघादी होमेसे स्वतंत्र प्रमाण है।
जिममें परस्पर अधिनाभाव नहीं है उनमें अविनाभावकी सिद्धि करनेवाला ज्ञान कुतर्क या तर्काभास है। जैसे विषक्षासे वचनोंका अधिनाभाव जोड़ना, क्योंकि विवक्षाके अभाव ही स्वप्नाघस्थामै बचम प्रयोग देखा जाता है तथा शास्त्रकी विषक्षा रहनेपर भी मुखौके शास्त्र व्याख्यान रूप वचन नहीं देखे जाते। सात्पर्य यह है कि अम्पभिचारी अविमाभाषको ग्रहण करनेवाला ही ज्ञान तर्क प्रमाण कहा पायगा, अभ्य तर्काभास या कुतर्क । ४ अनुमान
अविनाभाषी साधनसै साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं। साध्यज्ञान ही साध्यसम्बन्धी अज्ञामका नाश करता है अतः साध्य सम्बन्धी प्रमिति में साध्यज्ञान हो करण होनेसे अनुमान हो सकता है।
१० वा मनोरयपृ०७ ।