________________
न्यायविनिश्चयविघरण
साक्षात् अर्थसे उत्पन्न नहीं होती अतः वह भप्रमाण है किन्तु अकलसरवने गृहीतग्राही होनेपर भी स्मृतिको अविसंवादिनी होनेके कारण प्रमाण स्वीकार किया है। अगृहीतग्राहित्य और गृहीतग्राहिरव अप्रमाणता या प्रमाणताके प्रयोजक नहीं हो सकते । प्रमाणत्वका हेतु तो अधिसंघाद ही है। वह अवि. संवाद अन्य ज्ञानीकी तरह स्मृतिमें विशेषतः मुरक्षित है। समस्त जगत के व्यवहार स्मृतिमूलक ही है। फिर स्मृतिमें 'तन' शस्त्रका उल्लेख होना अपूर्ण है जो अनुभवमें नहीं पाया जाता । प्रत्यमिशान, अनुमान और बागम आदि प्रमाणोंकी उत्पति स्मृत्तिके बिना नहीं हो सकती अत: अधिसंघादी प्रत्यभिझान तर्क अनुमान और आगमका जनक होनेसे भी स्मृति प्रमाण है। जो स्मृति विसंवादिनी है उसे अप्रमाण कहनेका रास्ता खुला हा है। इसी तरह पार्यसे उत्पन्न होना या न होना प्रमाणता और अप्रमाणताका प्रयोजक नहीं है क्योंकि ज्ञान के प्रति अर्थ की कारणता सार्वत्रिक नहीं है। अतः अविसंघादी होनेके कारण स्मृत्ति स्वयं मुख्य प्रमाण है। २ प्रत्यभिज्ञान
दर्शन और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले एकत्व, सारश्य, साहन, प्रतियोगी और आपेक्षिक आदि रूपसे संकलन करनेवाले शानको प्रत्यभिज्ञाम कहते हैं । यद्यपि 'म पयार्थ' इस प्रत्यभिज्ञानके 'सः' इस अंशको स्मरण और 'भयं' इस अंशको प्रत्यक्ष जान लेता है फिर भी ‘स एवायं' इस समय संकलित प्रमैनको । स्मरण होगा सकता है और वसा जान प्रायक्ष और अतीत स्मरणमूलक जितने प्रकारके संकलन ज्ञान होते हैं वे सब प्रत्यभिज्ञान प्रमाण की सीमा है। असीन
और वर्तमानकी कहीको जोड़नेवाला एकट्यगत एकत्र मुख्य रूपसे प्रत्यभिज्ञानका प्रमेय है। जिस एकत्वकी धुरीपर संसारके समस्त व्यवहार, यहाँ तक कि स्वयं अपनी जीवनस्थिति मुसंकलिप्त होती है उसी एकन्यको प्रस्यभिज्ञान अविसंवादी रूपसे मानता है। कोई भी मौलिक पदार्य पूर्व और उत्तरमें चिशकलित पर्यायौंका ढेर नहीं है किन्तु उसके पूर्वोत्तर क्रम में मुक मौलिकता है जो प्रतिक्षण परिवर्तन करनेपर भी उसकी सत्ताको न तो समाप्त होने देती है और न पदार्थान्तरसे संक्रान्त ही होने देती है। यही मौलिकता द्रव्य और ध्रौव्य शब्दोंसे पकड़ी जाती है। क्षण परिवर्तन परके श्रीच यह अविष्ठित धुरी द्रव्य का प्राण है, इसीके वलपर परिवर्तित द्रव्यमें 'स एधायम्' ग्रह यही है ऐसा अविसंधादी प्रम्यभिज्ञान होता है। बन्धन-मोक्ष, लेम-देन, शप्रयोग आदि समस्त व्यवहार इसीके आधारसे चलते है। अतः एकाव प्रत्यभिज्ञान कथंचित अपूर्वार्थ प्राही और अधिसंवादी होनेके कारण प्रमाण है। 'स एषाय' इस ज्ञानको इन्द्रियप्रत्यक्ष तो इसलिए नहीं कह सकते कि इन्द्रियाँ केवल सम्बन्च और वर्तमान अयं को ही जानती हैं जबकि 'सः' अंश असम्बदू और अवर्तमान है। इसी तरह 'सः' वक सीमित रहनेवाला स्मरण भी असीत पर्तमानध्यापी एकत्वको स्पर्श नहीं कर सकता।
नैयायिक 'गोसहशो गवयः' इस अतिदेश वाक्यको सुनकर सामने अचमके देखनेपर होनेवाले 'यह गवय शब्दका वाच्य है। इस प्रकारके संशा-संज्ञी सम्बन्धको उपमान नामका रवतन्य प्रमाण मानने है। किन्तु सकलदेव प्रत्यक्ष और स्मरणमूलक यावत् संकलनीको चाहे के एकतिपयक, सारश्यविषयक, बैसारश्यविषयक, प्रातियोगिक या आपेक्षिक कैसे भी ही प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव किया है। इसीलिए उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि यदि 'गौके सदृश गवय होता है। इस सारश्यप्रत्यभिज्ञामको स्वतन्त्र प्रमाण माना जाता है तो 'गौसे विलक्षण भैस होती है। इस साक्ष्य प्रत्यभिज्ञानको, 'पटनेसे कलकत्ता पर है'इस प्रतियोगिक प्रत्यभिज्ञानको 'आँवलेसे अमरूद बड़ा होता है। इस आपेक्षिक प्रत्यभिज्ञानको तथा और भी इसीके प्रत्यक्ष-स्मरणमूलक विभिम ज्ञानोको स्वतन्त्र प्रमाण माममा होगा।
१ "उपमानं प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनम् ।
तईधति प्रमाणे किं स्यात् संशिप्रतिपादनम् ||१९|| इदम महद् दूरमासन्न प्राशु नेति या | व्यपेक्षातः समक्षेऽर्षे विकल्पः साश्नान्तरम् ॥२१॥" -लषी।