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न्यायविनिश्वयविवरण
इस तरह अविनाभावरी हेतु पक्षही सिद्धि करमा अनुमानका लक्ष्य है अतः उसमें या नाशितबाद आदिको व्यवस्था अनुपयोगी नियमोंका जाल रचना उचित नहीं है।
भागमस वाचय आहिले होनेवाला ज्ञान आगम है जो जिस विषय चक है वह उस विषयका आस है। यद्यपि आगम प्रमाणकी हो-व्यवहारमै भी होती है फिर भी आगम सर्व के द्वारा प्रतिपादित उपदेशों में रूम है। आगमकी प्रमाणताका आधार पताका गुण है। गुरुद्वारा कहे गये वचन विसंवादी और प्रमाणभूत होते हैं। जैन परम्परा में आत्मामें सर्वेस और वीतरागताका पूर्ण विकास माना है। वनों में विसंवाद या तो महानसे होता है या राग और पके कारण पदार्थका यथार्थज्ञान न होनेसे बताया वहा बोलता है, और ज्ञान होनेपर भी यदि किससे राग या होता है तो भी वह अन्यथा बोकने में प्रवृत्त हो जाता है। जो पूर्ण वीतरागी और सर्वश है उसके बचनों में विसंवादका कोई कारण नहीं रह जाता।
सर्वशः शिवाय-
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आरमा शान-स्वभाववाला है। ज्ञानावरण कर्मके कारण उसका ज्ञान रुक-रुककर छि विकि रूपसे प्रकाश में आता है जब सम्यग्दर्शनादि उपायों से ज्ञानावरणका समूल क्षय हो जाता है तब उसकी समस्त शेष प्रवृति की रोक सकता है ? सता सिद्ध करनेकी सबसे मुख्य युकि यही है। ज्ञानमें जानने का स्वभाव है और शेयमें ज्ञानमें प्रतिभासित होनेका । यदि कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं में सेवा प्रतिभास होना ही चाहिए जैसे बाइक स्वभाववाली अग्नि यदि कोई रुकावट न हो तो नको जा ही है कि ज्ञानकी स्वाभाविक प्रवृति किसी इन्द्रिय; आदि निमि की अपेक्षा नहीं है अतः यह स्वभाव को जानता है अकलदेव हुए लिखा है कि "शस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थावलोकनम् ॥' पायविनिश्वष २०१
इसके सिवा उन्होंने सर्वज्ञता सिद्ध करनेके लिए 'ज्योतिशामादिसंवाद' हेतुका प्रयोग किया है। वे लिखते हैं कि यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके तो ग्रहांकी दशा और चन्द्रग्रहण भाषिका उपदेश हो सकेगा? ज्योविज्ञान अविसंवादी देखा जाता है, अतः यह मानना ही चाहिए कि उसका उपवाद था। जैसे सत्य स्वप्रदर्शन इव्यापार आदिकी सहायता के बिना ही भावी राज्य लाभ आदिका स्वार्थ स्पष्ट मान कराता है उसी तरह सर्वज्ञान अत्रिय पदार्थों में होता है। जैसे
विद्या याचिका विद्यापदायका भान होता है उसी तरह सर्वज्ञका शाम अन्द्रिय पार्थोका मासक होता है। चूँकि दोष और आवरण आगन्तुक हैं आत्मा के स्वभाव नहीं हैं यसः प्रतिपक्षी साथमा उनका समूल नाश हो जाता है और जब आमा निरावरण और निर्दोष हो जाता है उसका पूर्ण ज्ञान-स्वभाव लिल उठता है। हम साधक प्रमाणको लाकर उन्होंने सर्वज्ञ-सिद्धि एक जिस खास हेतुका प्रयोग किया है वह है "सुनिश्चितासंभव” अर्थात् सभी की सत्ता सिद्ध करनेके लिए सबसे बड़ा प्रमाण यही हो सकता है कि उसकी सत्ता में कोई शक न हो। जैसे "मैं सुखी हूँ" इसका सबसे बड़ा साधक प्रमाण यहाँ है कि मेरे सुखी होने में कोई साधकप्रमाण नहीं मिती में कोई प्रमाण नहीं है अतः उसका निर्वाध सजाय सिद्ध हो जाता है। इस हेतु समर्थनमें उन्होंने विरोधियों द्वारा कथित वाचकांका मिराकरण इस प्रकार दिया है-सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि का है और पुरुष है जैसे कोई गली घूमनेवाला
प्रश्न
अवारा मनुष्य 1
उत्तर- और सर्वज्ञापका कोई विरोध नहीं है का भी हो सकता है और सर्वश भी यदि ज्ञानके विकास में सचनोका हास देखा जाता तो उसके अध्यास विकास में बचमा अध्यन्त दास होता, पर देखा तो इससे उठा ही जाता है। ज्यों-ज्यों ज्ञानमें वृद्धि होती है ही देखी जाती है।
वचनों प्रकर्षता