________________
प्रस्तावना
कर सका, न तो सायका रष्टिमे उचित है और न अहिंसाकी पिसे म्याथ्य है। अतः वा के लिए असाधनाज बचन और प्रतिवादीके लिए अदोपोद्भावन ये दो ही निग्रह स्थान मानने चाहिए। बादीका कर्तव्य है कि वह निदोंग और पूर्णसाधन बोले । इसी तरह प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ द्वाणका उदभावन करे । यदि वादा निदोष साधन नहीं बोलता या जो साधनके अन नहीं हैं ऐसे वचन कहता है तो असाधनाङ्ग वचन होनेसे पराजय होना चाहिए । प्रतिवादी यदि अधार्थ दापोंका उदभावन न कर सके या ओ दोष नहीं है उसका दोषरूपमै उद्भाधन करे तो उसका पराजय होना चाहिए। इस तरह धर्मकीर्तिने सामान्यतया रय प्यवस्थाका समर्थन करने भी उसके विभिध व्यायानों में अपनेको उसी नियमोंके घपलेमें डाल दिया । उम्होंने असाधनान वसनके विविध व्याख्यान करते हुए लिखा है कि मनवय या व्यतिरेक स्थान्तमसे केवल एक दृष्टान्तम्मे ही जय साध्यकी सिद्धि सम्भव है तो दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाज वचन होगा । निरूपवचन ही साधनाङ्ग हैं, उनमेंसे किसी एकका कथन न कर सकना असाधनाङ्ग वचन होगा । प्रतिज्ञा, निगमन आदि जो साधनके नहीं है उनका कथन असाधनाङ्ग है। इसी तरह जो पण नहीं है उन्हें दूपणके रूपमें उपस्थित करना या जो दूपण है उनका उद्भावन नहीं कर सकना अदोरोदभावन है। यह सब लिखकर भी अन्तमें उनने यह भी सूचित किया है कि जयलाभके लिए स्वपक्षमिति और परपक्ष मिराकरण आवश्यक है।
अकलकुदेव इस असाधनाङ्गवचन और अदोपाद्भायनके झगड़ेको भी पसन्न नहीं करते । किसको साधना माना जाय किसको नहीं, किसको दोष माना जाय किसको नहीं यह निर्णय स्वये एक
शास्त्रार्थका विषय हो जाता है। अतः म्बपक्षमिद्धिस ही जयव्यवस्था और पर पक्षका निराकरण होनेस पराजय माननी चाहिए। निदप साधन बोलकर स्वपक्षसिद्धि करनेवाला वादी यदि कुछ अधिक बोल जाता है या कम बोलता है या किसी साधारण निगमका पालन नहीं कर पाता है तो भी उसका पराजय नहीं होना चाहिए। प्रतिवादी अदि सीधा विरुद्ध स्वाभासका उद्धाचन करता है तो फिर उसे स्वतन्त्र भाषसे स्वपक्षसिद्धि करनेकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वादीके पक्षको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है। प्रसिद्ध आदि हत्वाभासांके उद्भाबन करनेपर प्रतिवादीको स्वपक्ष सिद्धि भी करनी चाहिए। सारपर्य यह कि शाला के नियमोंके अनुसार स्थलने पर भी वादी या प्रतिवादी स्वपक्ष सिद्धिके बिना जयलाभ नहीं कर सकते।
बाद या शास्त्रार्थ के चार होते है सभापति, सभ्य, वादी और प्रतिघाही । सन्माको प्राश्निक भी कहते है। इन्हें अधिकार होता है कि पक्षपातम न पड़कर दादी या प्रतिवादी किसी से भी प्रश्न करें । इनका काम है कि ये असद्वादका निपंध करें और लगामी सरह वादी या प्रतिवादीको इधर उधर न जाने देकर ठीक रास्तेपर रखे। सभापति तो समस्त वाद-व्यवस्थाका पूर्ण नियामक होता है। वादी और प्रतिवादीके बिना तो शास्त्रार्थ ही नहीं चल सकता।
जाति-'मिस्या उत्तरीको जाति कहते हैं। जैसे धर्मकीप्तिका अनेकान्सके रहस्यको न समझकर यह कहना कि "जय सभी वभप्रात्मक हैं तो दही भी ऊँट रूप होगा, ऐसी हालतमै दही खानेवाला ऊरको क्यों नहीं खाता?" अनेकान्त सिद्धान्तमें सत्रको सर्वधर्मामक सिद्ध नहीं किया जाता किन्त, प्रत्येक वस्तुमें उसके सम्भव अनेक धौंको बताया जाता है। दही जन पदार्थ है और ऊँट चेतन। वहीं खानेवाला दहीं पर्यायवाले पदार्थको स्वाना चाहता है न कि सद्रूपसे वर्तमान किसी भी पदाध को, अतः सद्पसे ऊँट और दहीको एक मानकर वरण देनेमे तो समस्त संसारको गम्यागम्य, स्वायाखाद्य, पूज्यापूज्य भ्यवस्थाओंका लोप हो जायगा। 'अकलदेव नैयायिकके द्वारा कही गई साधर्म्यसम बैधर्मासम आदि २५ जातियांकी न तो कोई खास महाप देते है, और न उनकी आघना कता ही समझते हैं। असदुसर तो असंख्य प्रकारके हो सकते हैं, अतः जातियोंकी २५ संख्या भी अपूर्ण ही है।
१ न्यायवि० २।२०९ । २ न्यायवि० २।२०३ । ३ न्यायवि० २।२०७ |