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प्रस्तावना
बधार्थ बोध करानेवाले ज्ञान भी यदि मोक्षमोपयोगी नहीं होते हैं तो वे मिथ्याज्ञान ही है। इम्विय और मनके दोपके कारण लोकप्रसिन्दू संशयाटि ज्ञान भी इस रष्टिकोणसे सम्यग्ज्ञान ही कलित होते हैं। आगमकी यह आध्यात्मिक शैली है।
जागमिक पाँच ज्ञानोंका तथा उसकी परिभाषाओंका दार्शनिक परम्परा के साथ समन्वय करनेकी दृष्टिसे सर्वप्रथम महान् छार्शनिक महाकलाधने प्रमाण-विभागकी स्पष्ट रूपरेखा बनायी। यद्यपि सिबसेन दिवाकरके न्यायावतारमै प्रमाणके प्रत्यक्ष अनुमान और शाब्द ये तीन भेद किये गये है जिसका आधार पुरानी सांख्य आदि परम्परा, रही हैं। प्रमाण-प्रय वादियोंने इन्द्रियगम्य
और अनुमेय अर्थ के सिवाय भी ऐसे अतीन्द्रिय पदार्योंकी सत्ता स्वीकार की है जिसमें शाब्द पा आगम प्रमाणका अधिकार है। प्रस्तुत न्यायविनिश्चय प्रन्धके प्रस्तावोंका विभाजन भी इसी आधारसे दुला है। महाकलदेबके सामने प्रायमिक ज्ञानपरम्पराको दार्शनिक चौखटेमें व्यवस्थित रूपसे बैठानेका महान कार्य था जब कि उनके पूर्ववर्ती युगप्रधान समन्तभद्रादि दार्शनिकोंने इस विषय में कोई खास दिशानिर्देश भी नहीं किया था। सर्वप्रथम उन्होंने प्रत्यक्ष पारमार्थिक और सांध्यवहारिक ये दो भेद करके अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानको आममानुसार पारमार्थिक प्रत्यक्ष मानकर इन्द्रिय मनोजभ्य मतिको साम्यवहारिक प्रत्यक्षम स्थान दिया और प्रत्यक्ष शम्बकी प्रवृत्तिका निमित्त अक्षजन्यचके स्थानमें वैशयको स्वीकार किया । इन्द्रिय और मनसे उत्पन होनेवाले प्रत्यक्षको अंशतः विशद होनेके कारण परमार्थतः परोक्ष होकर भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा। यद्यपि विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिममणि क्षमाश्रमण'ने भी प्रत्यक्षके इन दो भेदोंको स्वीकार करके इन्द्रियमनोजन्य ज्ञानको सान्यवहारिक प्रत्यक्ष संज्ञा दी है किन्तु परोक्ष प्रमाणोंकी संख्या और व्यवस्थामें वे सर्वथा मौन है। अकलक देखने मतिज्ञानके पर्याय रूपसे प्रसिद्ध स्मृति, संज्ञा, चिन्ता भौर अभिनिबोधके साथ ही साथ श्रत अर्थात् आगम इन पाँच भेदोंमें परोक्षका विभाजन कर प्रमाण व्यवस्थाको सम्पूर्ण किया । उनने यह भी बताया कि परोक्षताका कारण अपनी उत्पलिमें झानान्तरकी अपेक्षा रखना है । स्मरणमें पूर्वानुभव, प्रत्यभिज्ञानमें पूर्वानुभव तथा वर्तमान प्रत्यक्ष तर्कमैं स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमानमें लिंग प्रत्यक्ष व्याप्तिस्मृति प्रस्थमिज्ञान और प्यासिपाही तर्क तथा आगममें शमश्रण और संकेत स्मरणकी अपेक्षा होती है।
लघीषयमै अकलकदेवने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और भाभिनियोधिक इन शानोंको शकरयोजनाके पहले मतिज्ञान माना है तथा शब्दयोजनाके बाद श्रुतज्ञान । यद्यपि इस विभागसे मति स्मृ. स्यादि शानोंके परोक्ष होने में कोई बाधा नहीं पढ़ती तो भी लघीयलय (अकलङ्कप्रन्यत्रय पृ. ) के प्रवचन प्रवेशमैं अकलदेवका केवल श्रुतको परोक्ष कहना और स्मृति, चिन्ता, संज्ञा भौर अभिनिबोधको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष मानना एक नई बात है जिसका समर्थन उनके बाद किसी उत्साकालीम आचार्यने नहीं किया । तात्पर्य यह है कि भकलकवेबने पाँच इन्द्रिय और मनसे होनेवाले शानको जो कि आगमिक परिभाषामें परोक्ष था, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कोटिमें लिया और स्मृति, संज्ञा, (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) आभिनियोधिक (अनुमान) और श्रुत (आगम)इन पाँचोंको भागमा नुसार परोक्ष प्रमाण ही कहा है। १ स्मृप्ति
साधारणतया अनुभवसे गृहीत पदार्थ को ही ग्रहण करने के कारण स्मृति पार्शनिक क्षेत्रमें प्रमाण नहीं मानी जाती है। इसका दूसरा कारण भट्ट जयन्तने अनर्थजन्यस्व भी बताया है। चूंकि स्मृति
"इंदियमणोभ जंतं संबबहारपश्चरखं" -निशेषा. मा. गा० ९५ । २ "ज्ञानमा मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् ।
प्राट नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात |-लघी लो० १०,११ । ३ "न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् |
अपि त्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम्" -न्यायमं पृ. २३ ।