Book Title: Nyayavinishchay Vivaranam Part 2
Author(s): Vadirajsuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ सम्पादकीय सन् १९४९ के प्रारम्भमें न्यायविनिश्चयविवरणका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था और अब १९५५ में यह द्वितीय भाग मेरे ही सम्पादकरघमें निकल रहा है। इस बीच ज्ञानपीठका व्यवस्था परिवर्तन हुए । पर इतना है कि सांस्कृतिक प्रकाशनांकी धारा चालू है।। इस प्रन्थके सम्पादन में जिन बनारस आरा सोलापुर सरसावा मूडबिद्री और पारंगके भंडारोंकी कागा और ताडपत्रीय प्रतियोंका उपयोग किया गया है उनका परिचय प्रथम भागके 'सम्पादकीय में दे दिया है। मुराणाक्षरोंकी योजना भी प्रथम भागकी तरह ही है। हाँ, पृ. २५७ से मूलकारिकाएं ग्रेट नं. १ की जमदन. २ टाइपमें दी गई हैं और अवतरण १४पाइंट काला टाइपमें ही।पहिले भाग विवरणगस घाख्येय मूलशको जहाँ कारिकाके टाइपमै ही दिया है, वहाँ पृ. ७५ से पृ० २५६ सक ग्रेट मं. २ में तथा पृ. २९७ से १४ पाइंट काला टाइपमें ही दिया गया है । पू. ३०० से ३२३ तककी टिप्पणीकी प्रेसकापी प्रेससे वो गई थी अतः पाण्डुलिपिके हाँ सिये पर लिखे गये संकेतोंके आधारसे ही उसने पृष्ठोंकी टिप्पणी लिखी गई है। इस भागके प्रक्र संशोधनमें प्रथम भागकी तरह पं. महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने सहायता दी है और परिशिष्ट लिखनेका कार्य भी उन्होंने सम्हाला है। परिशिष्ट अनाने में जो असावधानी हुई है वह शुद्धिपत्रमें सुधार दी है। इस भाग में निम्नलिखित परिशिष्ट बनाये गये है---- (१)मूल कारिकाओंका अकाराद्यनुक्रम, (२)विवरणकारके स्वरचित इलोकोका अकाराचनुकम, (३) विवरणगत अवसरणांकी सूखी, (४) न्यायचिनिश्चयममगत विशिष्ट शब्दोंकी सूची, (५) न्यायविनिश्चयविवरणगत ग्रन्थ और ग्रन्धकार, (६)विवरणगत विशिष्ट शान और (७) प्रन्धसत विधरण । ज्ञानपीठके संस्थापक दानवीर साह शान्तिप्रसादजी और अध्यक्षा उनकी धर्मपत्नी सी० श्रीमती रमाजीकी भावना सांस्कृतिक अन्धाको सङ्गिाण सम्पादन कराके प्रकाशनकी बराबर रही है और उसके किए मुक्त हस्तसे साधन मी उन्होंने प्रस्तुत किये है। इसका ही यह फल है कि ज्ञानपीठका यह विभाग भपनी धाराको चालू रखे है। प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पावनमें निया,समष, शान्ति और साधन सभीका संतुलन अपेक्षित होता है। विशेषकर उन प्रधा सम्पादमम जिनका मृलभाग उपलब्ध न हो और विवरणको प्रतियाँ अशुद्धियोंका पुञ्ज हो। दार्शनिक ग्रन्याम अन्यान्तरीके अवतरण पूर्वपक्ष और उत्तर पक्ष दोनों में ही अपुरमायाम आते हैं, उन सबका स्थल खोजना तथा उपयुक्त टिप्पणियाँका सङ्कलन आदि सभी कार्य धैर्य और स्थिरताके बिना नहीं सघ सकते। इसकी जो पद्धति आज प्रचलित है उसका निर्वाह तथा ऐसे उपयोगी परिशिष्टांकी योजना, जिनसे प्रन्ध और ग्रन्थकारके ऐतिहासिक एवं विकासक्रमके तथ्योंका भाकलन हो सके आदि कार्य व्यवस्थित योजना एवं सम्पादन दृष्टिक चिना नहीं चल पाते। ज्ञानपीठके सञ्चालकोंने इस पथके सम्पादनमें यथाशक्य इस परम्पराको निबाहनेकी चेष्टा की है और इसका बहुत कुछ श्रेय ज्ञानपीठके योग्य मन्त्री श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयको भी है जो अपनी लकीरके पक्के हैं। जिन परिस्थितियोंमें यह भाग प्रकाशित हो रहा है उनमें जो संभव और शक्य था, किया है। इस वातकी चेष्टा अवश्य की है कि कमसे कम इस भागमै सम्पादन और प्रकाशनका स्तर कायम रह जाय । हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस २३१२१५४ महेन्द्रकुमार जैन न्याधाचार्य

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