Book Title: Niyamsara Anushilan Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ नियमसार अनुशीलन स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "शाश्वत चैतन्य के अवलम्बन से जो समभाव प्रगट हुआ है, वह शाश्वत ह स्थाई रहता है; इसलिए उसे ही यहाँ शाश्वत ह्र स्थाई सामायिक कहा गया है। यहाँ जो सर्वसावध के व्यापार से रहित कहा है, उसमें प्रथम सावधभाव तो मिथ्यात्व है, जो सबसे अधिक हानिकारक है। इसलिए सामायिक के लिए सर्वप्रथम उस मिथ्यात्व भाव का त्याग होता है; तत्पश्चात् चैतन्य में लीन होने पर जिनके पुण्य-पाप रूप सावधभाव भी छूट जाते हैं, उन्हें सर्वज्ञ के शासन में स्थायी सामायिक कहा है।' 'यहाँ जिस सावधभाव को छोड़ने के लिए कहा है, वह चैतन्य का स्वरूप नहीं।' ह्न ऐसा निर्णय हुए बिना दर्शनविशुद्धि नहीं होती और दर्शनविशुद्धि के बिना उक्त सावधभावों का त्याग नहीं होता। इसलिए सावद्यभावों के त्याग में दर्शनविशुद्धि समाहित ही है। यहाँ मुख्यपने मुनि की बात ली है; श्रावक को भी जितने अंशों में स्वभावसन्मुख वीतरागपरणति प्रगट हुई है, उतने अंशों में उसे भी स्थाई सामायिक है; क्योंकि उसके भी मिथ्यात्व आदि सावधभावों का परिहार हुआ है।” उक्त कथन के माध्यम से आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी यह कहना चाहते हैं कि सावध में हिंसादि भावों के साथ मिथ्यात्व और कषायें भी आती हैं। अत: मिथ्यात्व और कषायों के अभाव के बिना सामायिक सदा नहीं होती। मुद्दे की बात यह है कि मिथ्यात्व और कषायों के अभाव में जिस भूमिका में जितनी शुद्धि प्रगट हुई है; वह एक प्रकार से सामायिक ही है। अतः भूमिकानुसार शुभाशुभभाव के सद्भाव में भी मिथ्यात्व और भूमिकानुसार कषाय के अभाव में शुद्धपरिणतिरूप सामायिक विद्यमान रहती है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग के काल में तो सामायिक है ही; ज्ञानी के अन्य काल में भी शुद्धपरिणतिरूप सामायिक है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०३५ २. वही, पृष्ठ १०३६ ३. वही, पृष्ठ १०३६ गाथा १२५ : परमसमाधि अधिकार इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि वे भावलिंगी मुनिराज सदा सामायिक में ही हैं कि जो समस्त सावध से मुक्त हैं, त्रिगुप्त हैं और पंचेन्द्रिय विषयों के निरोधक हैं।।१२५।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जो इसप्रकार हैह्न (मंदाक्रान्ता) इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यराशिं नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ्मानसानाम् । अन्तःशुद्ध्या परमकलया साकमात्मानमेकं बुद्ध्वा जन्तु स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति ।।२०३।। (हरिगीत) संसारभय के हेतु जो सावध उनको छोड़कर। मनवचनतन की विकृति से पूर्णत: मुख मोड़कर। अरे अन्तशुद्धि से सद्ज्ञानमय शुद्धातमा। को जानकर समभावमयचारित्र को धारण करें।।२०३|| इसप्रकार सदा सामायिक में रहनेवाले मुनिराज, भवभय करनेवाले समस्त सावध को छोड़कर, मन-वचन-काय की विकृति को नष्ट कर, अंतरंग शुद्धि से ज्ञानकला सहित एक आत्मा को जानकर स्थिर समतामय शुद्ध शील को प्राप्त करते हैं। ___ स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “मन-वचन-काय की विकृति को अर्थात् मन-वचन-काय के निमित्त से होनेवाले विकार को निरन्तर नाश करने के लिए ऐसा जानना कि स्वभाव में विकार नहीं है तथा जो पर्याय में क्षणिक विकार है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। जिसे ऐसा द्रव्य-पर्याय का विवेक प्रगट होता है, उसे ही अन्तरंग शुद्धात्मा में लीनतापूर्वक सामायिक होता है।" इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि मिथ्यात्व और कषाय के अभाव में भावलिंगी मुनिराज भूमिकानुसार सदा ही सामायिक में रहते हैं, समाधि में रहते हैं ।।२०३|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०३७Page Navigation
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