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निमित्तोपादान
द्रव्यशक्ति यह बताती है कि यह कार्य इस द्रव्य में ही होगा, अन्य द्रव्य में नहीं और पर्यायशक्ति यह बताती है कि विवक्षित कार्य विवक्षित समय में ही होगा। अतः न तो द्रव्यशक्ति महत्त्वहीन है और न पर्यायशक्ति ही; दोनों का ही महत्त्व है, पर काल की नियामक पर्यायशक्ति ही है । काल का दूसरा नाम भी पर्याय ही है। यह पर्यायशक्ति अनन्तरपूर्वक्षणवर्तीपर्याय के व्ययरूप एवं तत्समय की योग्यतारूप होती है। अतः इन दोनों की ही क्षणिक उपादान संज्ञा है। इसीलिये क्षणिक उपादान को कार्य का नियामक कहा गया है।
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यदि त्रिकाली उपादान को भी शामिल करके बात कहें तो इसप्रकार कहा जायेगा कि पर्यायशक्ति युक्त द्रव्यशक्ति कार्यकारी है, पर इसमें भी नियामक कारण के रूप में तो पर्यायशक्तिरूप क्षणिक उपादान ही रहा ।
यदि निमित्त को भी इसमें शामिल करके बात करनी है तो इसप्रकार कहा जा सकता है कि सहकारीकारणसापेक्ष विशिष्टपर्यायशक्ति से युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी है ।
उक्त सन्दर्भ में जयपुर (खानियाँ) तत्त्वचर्चा में सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्दजी ने अनेक न्यायशास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत करते हुए जो स्पष्टीकरण किया है, उसका कतिपय महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है -
" श्री राजवार्तिक में कहा है यथा मृदः स्वयमन्तर्घट भवनपरिणामाभिमुख्येदण्ड-चक्र- पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति । यतः सत्स्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घट भवनपरिणामनिरुत्सुकत्वान्न घटो भवति । अतो मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्त- सापेक्ष अभ्यन्तरपरिणाम सान्निध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वम् ।
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अर्थ - जैसे मिट्टी के स्वयं भीतर से घट के होनेरूप परिणाम के सन्मुख होने पर दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं; क्योंकि दण्डादि निमित्तों के रहने पर भी बालुकाबहुल मिट्टी का पिण्ड स्वयं भीतर से घट के होनेरूप परिणाम (पर्याय) से निरुत्सुक होने के (घटपर्याय रूप