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कुछ प्रश्नोत्तर
उत्तर : यद्यपि यह सत्य है कि कार्य के बिना किसी को कारण कहना संभव नहीं है, पुत्र के बिना किसी को पिता कहना संभव नहीं है; तथापि कार्य के पूर्व कारण की सत्ता से तो इन्कार नहीं किया जा सकता है; क्योंकि पुत्र होने के पूर्व भी पिता की सत्ता तो थी ही, भले ही उसे पिता कहना संभव न हो ।
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उपदेश को निमित्तकारण भी तभी कहा जायगा, जबकि उस उपदेश से किसी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो; क्योंकि उस सम्यग्दर्शन रूप कार्य काही तो वह कारण कहा जायगा। यदि किसी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ही नहीं हुई तो उस उपदेश को किसका कारण कहा जाय ?
यह सब होने पर भी जब किसी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है; तब उपदेश की प्राप्तिरूप निमित्त नियम से उसके पूर्व ही होता है, उस समय नहीं । इसी से साबित होता है कि उपदेशरूप निमित्तकारण तो कार्य होने से पहले ही होता है, उस समय नहीं; भले ही उसे कारण आप तब कहें कि जब कार्य हो जाय ।
यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अन्य कार्यों के समान सम्यग्दर्शनरूप कार्य के निमित्त भी दो प्रकार के होते हैं - अंतरंग और बहिरंग | अंतरंगनिमित्त तो दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम या उपशमरूप अभाव है और बहिरंगनिमित्त है उपदेश की प्राप्ति । अंतरंग निमित्त तो कार्योत्पत्ति के काल में ही विद्यमान है; पर देशनालब्धिरूप बाह्यनिमित्त पहले ही हो चुका है। ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिसके अनुसार अंतरंग और बहिरंग दोनों ही निमित्त कारणों का कार्योत्पत्ति के काल में उपस्थित रहना अनिवार्य ही हो ।
(२) प्रश्न : यदि ऐसा हो तो फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि उपदेश को कारण तब कहेंगे कि जब सम्यग्दर्शनरूप कार्य उत्पन्न हो जाय ?
उत्तर : इसलिये कि ऐसा तो कोई नियम है नहीं कि उपदेश श्रवण से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो ही जावेगी; हो भी सकती है और नहीं भी