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कुछ प्रश्नोत्तर
आरोप लगाया जाता है कि आप दूसरों की अपेक्षा गुरुदेव श्री के नाम का उल्लेख कम करते हैं । इस संबंध में आपको क्या कहना है ?
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उत्तर : कम करते हैं, पर करते तो हैं न? न करते हों- ऐसी बात तो नहीं है न । अरे भाई ! इन राग-द्वेष की बातों से क्या लाभ है?
हमारा तो इतना ही कहना है कि बात-बात में गुरु के नाम के उल्लेख को ही गुरुभक्ति समझने वालों और बात-बात में गुरु का नाम न लेने वालों को गुरुद्रोही कहने वालों को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिये कि आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य अमृतचन्द्र जैसे समर्थ आचार्यों ने अपने गुरु के नाम का कहीं भी उल्लेख तक नहीं किया। क्या उनके कोई गुरु ही न रहे होंगे? क्या उनके हृदय में अपने गुरु के प्रति श्रद्धा न होगी? ऐसा तो संभव ही नहीं है। अरे भाई ! श्रद्धा तो हृदय की चीज है, वह दूसरों को दिखाने के लिये नहीं होती। श्रद्धा को भुनानेवाले लोग इस तथ्य को नहीं समझ सकते।
न तो हम यथासमय गुरुदेव श्री के नामोल्लेख से कभी चूकते ही हैं और न ही बात-बात में उन्हें बीच में लाकर उनके नाम को भुनाने की कोशिश ही करते हैं ।
(१७) प्रश्न: प्राप्त करने के लिये परम-उपादेय अनन्तसुखस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति के लिये निमित्त उपादान के स्वरूप समझने की क्या आवश्यकता है? तात्पर्य यह है कि निमित्त - उपादान के स्वरूप समझने से वास्तविक लाभ क्या है; क्योंकि जबतक इसके वास्तविक लाभ और उपयोगिता ख्याल में नहीं आवेगी; तबतक इसके समझने के लिये रुचि जागृत नहीं होगी, चित्त उल्लसित नहीं होगा ।
उत्तर : यह कहना तो एकदम सत्य है कि जबतक किसी कार्य की उपयोगिता और लाभ स्पष्ट नजर नहीं आते; तबतक उस कार्य में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति नहीं होती और उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति के बिना कार्य में सफलता भी प्राप्त नहीं होती ।