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परिशिष्ट-२
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उपादान तुम जोर हो, तो क्यों लेत अहार ? पर निमित्त के योग सों, जीवत सब संसार ॥२४॥ जो अहार के जोग सों, जीवत हैं जगमाहिं । तो वासी संसार के, कोऊ मरते नाहिं ॥२५॥ सूर सोम मणि अग्नि के, निमित्त लखें ये नैन । अन्धकार में कित गयो, उपादान दृग दैन ॥२६॥ सूर सोम मणि अग्नि जो, करे अनेक प्रकाश । नैन शक्ति बिन ना लखें, अन्धकार सम भास ॥२७॥ कहै निमित्त वे जीव को मो बिन जग के मांहिं । सबै हमारे वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं ॥२८॥ उपादान कहै रे निमित्त! ऐसे बोल न बोल । तोको तज निज भजत हैं, ते ही करें किलोल ॥१९॥ कहै निमित्त हम को तजै, ते कैसे शिव जात । पंच महाव्रत प्रगट हैं, औरहु क्रिया विख्यात ॥३०॥ पंच महाव्रत जोग त्रय, और सकल व्यवहार । पर कौ नमित्त खिपाय के, तब पहुँचे भव-पार ॥३१॥ कहै निमित्त जग में बड्यौ, मो तें बड़ौ न कोय । तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसाद रौं होय ॥३२॥ उपादान कहै तू कहा, चहुँ गति में ले जाय । तो प्रसाद तें जीव सब, दुःखी होंहि रे भाय ॥३३॥ कहै निमित्त जो दुःख सहै , सौ तुम हमहिं लगाय । सुखी कौन से होत हैं, ताको देहु बताय ॥३४॥ जो सुख को तू सुख कहै, सो सुख तो सुख नांहि । ये सुख तो दुःख-मूल हैं, सुख अविनाशी मांहि ॥३५॥