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एक अनुशीलन
इसीकारण भट्टाकलंकदेव ने दैव का लक्षण करते हुए अपनी अष्टशती टीका में लिखा है कि पुराकृतं कर्म योग्यता च दैवम् अर्थात् पहले किया गया कर्म और योग्यता इन दोनों को दैव कहते हैं ।
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देखो, १४वें गुणस्थान में असातावेदनीय का उदय तो है, पर तज्जन्य दुःख और उसका वेदन नहीं है; क्योंकि उस समय उस जीव में द्रव्य-पर्याय योग्यता का अभाव हो गया है। इसलिये सिद्धान्त यह फलित होता है कि बाह्यसामग्री का सद्भाव या क्रियाशीलता कार्य की नियामक नहीं होती । उपादानगत द्रव्य-पर्याय योग्यता ही कार्य की नियामक होती है; क्योंकि ऐसे उपादान के अनन्तर समय में नियम से कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है ।
इसलिये निष्कर्षरूप में यह समझना चाहिये कि प्रत्येक द्रव्य नित्यता के साथ स्वयं परिणामस्वभावी होने से अपना कार्य स्वयं ही करता है - यह यथार्थ है। कार्य के होने में जो निमित्तता स्वीकार की गई है; वह असद्भूत व्यवहारनय से ही स्वीकार की गई है, परमार्थ से नहीं ।
अतः निश्चयनय का कथन सम्यक् एकान्तरूप होने पर भी इससे अनेकान्त की ही प्रतिष्ठा होती है। जबकि असद्भूत व्यवहारनय के कथन के अनुसार पर की सहायता को यथार्थ मानने पर परमार्थ से वह अनेकान्त का घातक ही सिद्ध होता है ।"
उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से 'कार्योत्पत्ति में उपादान और निमित्त का क्या स्थान है' - यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। पक्षव्यामोह से दूर रहकर विचार करने पर विवाद के लिये कोई स्थान नहीं रहता है। जिनवाणी का गहराई से अध्ययन नहीं करना ही तात्त्विक विवादों का मूल कारण है । अत: तात्त्विक विवादों से बचने का एकमात्र उपाय जिनवाणी का गहराई से स्वाध्याय करना ही है । न केवल तात्त्विक विवादों के सुलझाने के लिये, अपितु आत्मकल्याण के लिये भी प्राथमिक स्थिति में जिनवाणी ही परमशरण है ।
१. जैनतत्त्व समीक्षा का समाधान, पृष्ठ १०८ २. जैनतत्त्व समीक्षा का समाधान, पृष्ठ १२९