Book Title: Nimittopadan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ एक अनुशीलन यद्यपि आत्मा के रागादिभावों एवं कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम तथा उपशम को अंतरंग निमित्त के रूप में ही निरूपित किया जाता है; तथापि इनके सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है "जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥ जीवकृतरागादि परिणामों का निमित्तमात्र पाकर जीव से भिन्न अन्य पुद्गलस्कन्ध अपने आप ही ज्ञानावरणादि कर्मों के रूप में परिणम जाते हैं। इसीप्रकार रागादिभावों रूप स्वयं ही परिणमित होते हुए आत्मा के पुद्गल कर्म का उदय निमित्तमात्र ही है । " - 21 उक्त कथन में आचार्य अमृतचन्द्र ने 'स्वयमेव परिणमन्ते' पद द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक पदार्थ अपने उपादान की योग्यतानुसार स्वयं ही परिणमित होता है, उसके परिणमन में अन्य पदार्थ तो मात्र निमित्त ही होते हैं। उक्त सन्दर्भ में निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है - "प्रकृत में ऐसा समझना चाहिये कि जिसे आगम में निमित्त कहा गया है, अन्य के कार्य की उत्पत्ति में वह परमार्थ से अणु-मात्र भी सहायता नहीं करता, फिर भी उसकी सहायता के बिना कार्य हो ही नहीं सकता - ऐसा मानना ही अध्यवसानभाव है। इसी का प्रत्येक वस्तु अपने कार्यकाल में स्वयं निषेध करती है, क्योंकि जितनी जड़-चेतन वस्तुएँ हैं, उनका परिणाम पर की अपेक्षा किये बिना स्वयं ही होता है। फिर भी भिन्न सत्ता के दो द्रव्यों में जो विशेषण- विशेष्यभाव, निमित्त - नैमित्तिक और आधार - आधेय सम्बन्ध १. आचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक १२-१३

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