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एक अनुशीलन
13 से युक्त द्रव्यरूप क्षणिक उपादान और काल का या कार्य का नियामक तत्समय की योग्यतारूप क्षणिक उपादान रहा।
यहाँ एक प्रश्न यह भी सम्भव है कि धर्म और अधर्म तो उदासीन निमित्त हैं, इसकारण वे नियामक कारण कदाचित् न भी हों, पर प्रेरक निमित्त के बारे में तो ऐसी बात नहीं होना चाहिये। __इस आधार पर कोई कह सकता है कि उदासीन निमित्त भले ही कुछ न करते हों, पर प्रेरक निमित्त तो सब-कुछ करते ही हैं। छात्रों के अध्ययन में अध्यापक, पुस्तक और दीपक - ये तीनों ही निमित्त हैं; पर अध्यापक प्रेरक निमित्त है और पुस्तक व दीपक उदासीन निमित्त हैं । दीपक और पुस्तक को भले ही कर्ता मत कहो, पर अध्यापक को तो कर्ता ही कहना होगा। वह तो सक्रिय होकर प्रेरणा देता है, समझाता है; फिर भी यदि छात्र अध्ययन में प्रवृत नहीं होते हैं, तो वह उन्हें दण्ड भी देता है। अतः पुस्तक और दीपक की अपेक्षा अध्यापक का स्थान अवश्य ही महत्त्वपूर्ण है।
क्यों नहीं; यह बात तो एकदम स्पष्ट ही है कि दीपक और पुस्तक की अपेक्षा अध्यापक की निमित्तता भिन्न प्रकार की है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये तो निमित्तों के उदासीन और प्रेरक ये दो भेद किये गये हैं और यह बताया गया है कि छात्रों के अध्ययन में पुस्तक और दीपक उदासीन निमित्त हैं और अध्यापक प्रेरक निमित्त।
अरे भाई ! उक्त विश्लेषण से तो उदासीन और प्रेरक निमित्तों में परस्पर क्या अन्तर है ? - मात्र यही स्पष्ट होता है, कार्योत्पत्ति में निमित्त का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। उक्त संदर्भ में 'इष्टोपदेश' का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत् ॥
१. आचार्य पूज्यपाद : इष्टोपदेश, श्लोक-३५