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दोनों को एक मोक्षतत्त्व या मोक्षपदार्थ माना है। ___ पुण्यपना सामान्य होने के कारण द्रव्यपुण्य और भावपुण्य - दोनों को एक पुण्यतत्त्व या पुण्यपदार्थ माना है।
पापपना सामान्य होने के कारण द्रव्यपाप और भावपाप - दोनों को पापतत्त्व एक या पापपदार्थ माना है।।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि एक पदार्थ या एक तत्त्व, द्रव्यदृष्टि से दो द्रव्य या दो अस्तिकायरूप हो सकता हैं तथा एक द्रव्य या एक अस्तिकाय, तत्त्वदृष्टि या पदार्थदृष्टि से नौ तत्त्व या नौ पदार्थरूप हो सकते हैं।
जिस प्रकार जाति अपेक्षा द्रव्यों की संख्या छह होने पर भी संख्या अपेक्षा जीव अनन्त, पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्त धर्म-अधर्म-आकाशद्रव्य एक-एक तथा कालद्रव्य असंख्यात हैं। उसी प्रकार तत्त्व या पदार्थ भी जाति अपेक्षा सात या नौ हैं, संख्या अपेक्षा भेद-प्रभेदों की दृष्टि से उनकी संख्या भी अनन्त हो सकती है।
अध्यात्मदृष्टि में इस पदार्थदृष्टि या तत्त्वदृष्टि का ही कमाल है कि जीवतत्त्व को अन्य अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - इन सभी तत्त्वों या पदार्थों से अन्यस्वरूप देखा जाता है। इस दृष्टि से देखें तो अजीवकर्मों का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जीवतत्त्व के साथ न होकर जीवद्रव्य की उन पर्यायों के साथ घटित होता है। जो पुण्य, पाप, आस्रव, संवर आदिरूप कही जाती हैं, परन्तु उन्हें तो अलग तत्त्व या पदार्थ माना गया है, अतः जीवतत्त्व उन सबसे अलग अपने चैतन्यस्वरूप जीवत्व आदि स्वरूप में ही प्रतिष्ठित रहता है। उक्त पुण्य, पाप, आस्रव आदि के भाव मेरे जीवतत्त्व के ऊपर-ऊपर ही तैरते रहते हैं, मेरे स्वरूप में प्रविष्ट नहीं होते। नय-रहस्य
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