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प्रतिहारमें, आधारमें, उद्धारमें भवि॥ सेवो ॥४॥ त्रीजे भव वर तप करियो, प्रभु ए पुण्य अनुसरियो । जगत दुःखदल दूर करियो, बदलो नहीं तसउपकारी ॥ उपकारमें, आधारमें, उद्धारमें ॥भवि॥ सेवो ॥५॥ कर्म अरि क्षय करियो, महापद अरिहंत धरियो । धन्य धन्य ए गुण दरियो, आतम लब्धि अमृत तस गुण सारमें, आधारमें उद्धारमें ॥भवि॥ सेवो ॥६॥
काव्यम्'परमेष्ठिनमानमतां सुखदं, शिवसागतं गमिनं च मुदा ॥ भ्रमहारक मत्र महागुणदं, परितो यजते खलु भक्तजनः ॥१॥ ॥ तोटक वृत्तम् ॥
॥ मंत्रः ॥ मंत्रः ॐ ह्रीं श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरा मृत्युनिवारणाय श्रीमते अर्हत्परमेष्ठिने जलादिकं यजामहे स्वाहा
द्वितीय-सिद्धपद परमेष्टि पूजा
॥दोहा॥ वर्ण पंच संस्थान पंच, आठ स्पर्श दोय गंध ॥ वेद त्रण वली पांच रस, अडवीस टल्या प्रबंध ॥१॥ एम अठ्ठा वीश गुण थया, काया संग विहीन ॥ जन्म विहीन वखाणिये, ऊपर ए गुण तीन ॥२॥
एकत्रीश उपचार थई, वास्तविक अनंत ॥ जन्म नथी मरणो नथी, आदित्रिक कर्यो अंत ॥३॥
|ढाल-पहेली॥ (राग-माढ-मिट गई रे अनादि पीर चिदानंद जागो. ए चाल.) अनंत आनंद दायक, सिद्धपद सेवो तो सही सेवो तो ॥ अंचली ॥
अव्याबाध लोकोत्तर सुख ते, लेवो तो सही ॥ काल अनंते प्राप्त समय भवि, खोवो तो नहीं ॥अनंत॥१॥
सिद्धपद सेवा विण सिद्धपद नहीं, ठानो तो सही ॥ जन्म मरण ते विण नहीं टलशे, मानो तो सही ॥अनंत ॥२॥
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