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नहीं तात मात अरु भाई, पडते प्राणिकु बचाई ॥ है गुरु जगत में सहाई रे, ब्रह्मचारी शुरवीर निमो ॥६॥
सो आत्मकमल विकसावे, जो मुनिपद चित्तमें ध्यावे ।। घट अंतर लब्धि पावे रे, ब्रह्मचारी शूरवीर ॥नमो ॥७॥
॥ दोहा ॥ स्वपर कारज साधते, सो साधु भगवान ॥ सेवी सिद्धिवधू वरो, सत्ताइस गुणवान ॥१॥
ढाल दूसरी ध्यान धरले हो प्यारे ! जीअरवा, मुनिपद है सुख कारा रे ॥अंचली॥
__सर्व जीवको नित्य बचावे, भवोदधि पार उतारा रे ॥ पार न पाऊं मुनि गुणगणका, न करे काम मन मारा रे ॥ ध्यान ॥११॥
मुनिगुण गाने को मुनिमन मोरा, तलस रहा अति भारा रे ॥ बाल सागरका माप करे ज्यु, कलम त्युं करमें धारा रे ॥ ध्यान ॥२॥
अध्यातमरस मग्न रहे नितु, आत्म अनुभव कारारे ॥ अहोनिश ध्यान धरो मुनिपदका, विरति पद आधारा रे ॥ ध्यान ॥३॥
महामोहका जहर उतारण, गुरुगारुडी दिल धारा रे ॥ इस सम को उपकारी न जगमें, मुनिपद नैनका तारा रे || ध्यान ॥४॥
मुज मनकमलमें इनको धारा, ये मुज हृदयका हारा रे ॥ निसदिन घटमें मनाउं मुनि मुजरा, शिवपद लब्धि कारा रे ॥ध्यान ॥ ५॥
काव्यम् : सर्वोत्तमध्येय पद्प्रधानं, सुरासुरेन्द्रैः परिपूजितं यत् ॥ सेवस्व तत्ध्यानवतां हि गोचरं, गुणस्वरुपं शुभ-सिद्धचक्रम् ॥१॥ ॥उपजाति वृत्तम् ॥
॥मंत्रः॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलादिकं यजापहे स्वाहा
षष्ठ दर्शनपद पूजा
॥ दोहा ॥ सम्यग् दर्शन सुख करे, हरे सर्व संताप ॥ जड चेतन पीछान करे, काटे कर्म अमाप ॥१॥