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अष्टम-श्री चारित्रपदपूजा आराहि-अखंडिअ-सक्किअस्स, नमो नमो संजम-वीरिअस्स । सब्भावणासंगविवड्डिअस्स, निव्वाण दाणाइ समुज्जयस्स ।
- भुजंगप्रयात-वृत्तम् वली ज्ञानफल चरण धरीए सुरंगे, निराशंसता द्वार रोध प्रसंगे । भवांभोधि संतारणे यानतुल्यं, धरुं तेह चारित्र अप्राप्त मूल्यं ॥१॥ होये जास महिमा थकी रंक राजा, वली द्वादशांगी भणी होय ताजा । वली पापरुपोपि निःपाप थाय, थइ सिद्ध ते कर्मने पार जाय ॥२॥
ढाल-उलालाकीदेशी चारित्र गुण वली, वली नमो, तत्त्व रमण जसु मूलोजी । पर रमणीयपणुं टले, सकल सिद्ध अनुकूलो जी ॥१॥
उलालो प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम, तत्त्वथिरता दममयी । शुचि परम खंति मुक्ति दश पद, पंच संवर उपचयी ॥१॥
सामायिकादिक-भेद धर्मे, यथाख्याते पूर्णता । अकषाय अकलुष अमल उज्जवल, काम कश्मल चूर्णता ।२।
पूजा-ढाल, श्रीपाल के रास की देशी
देशविरति ने सर्वविरति जे, गृहि-यतिने अभिराम । ते चारित्र जगत जयवंतु, कीजे तास प्रणाम रे ॥ भविका, सिद्धचक्र पद वंदो ॥१॥
तृण परे जे षट्खंड सुख छंडी, चक्रवर्ती पण वरियो । ते चारित्र अक्षय सुख कारण, ते में मन मांहे धरियो रे । भविका, सिद्धचक्र पद वंदो ॥२॥
हुआ रांक पण जे आदरी, पूजित इन्द्र नरिदे । अशरण शरण चरण ते वंदूं, पूर्यु ज्ञान आनंदे रे । भविका, सिद्धचक्र पद वंदो ॥३॥
बार मास पर्याये जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये । शुक्ल शुक्ल अभिजात्य ते उपरे, ते चारित्रने नमिये रे । भविका, सिद्धचक्र पद वंदो ॥४॥
चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह । चारित्र नाम निरुत्ते भाख्यु, ते वंदु गुण गेह रे । भविका, सिद्धचक्र पद वंदो ॥५॥
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