________________
ज्ञान दर्शन अनंत खजानो, अव्याबाध सुख दरिया के ॥ सिद्ध सुबद्ध के स्वामी निजरामी के, हारे वाला प्रणमो निज गुण कामी रे । गुणकामी गुणकामी गुणवंता, जे वचनातीत हुआ रे ॥१॥ यह टेक ॥
क्षायिक समकित ने अक्षय स्थिति, जेह अरुपी नाम ॥ अवगाहन अगुरुलघु जेहनी वीर्य अनंतनु धाम - सिद्ध-२॥ इम अडकर्म अभावे अडगुण, वली इगतीस कहेवाय ॥ वलीय विशेषे अनंत अनंत गुण, नाण नयण निरखाय ॥ नित्य नित्य वंदना थाय के ॥सि.३॥
दोहा जिहां निज एक अवगाहना, तिहां नमुं सिद्ध अनंत । फरसित देश प्रदेशने, असंख्यगुणा भगवंत ॥
ढाल चौथा-राग फाग सिद्ध भजो भगवंत, प्राणी पूर्णानंदी ॥ सिद्धं ॥ लोका लोक लहे एक समये, सिद्धिवधू वरकंत ॥ प्राणी अज अविनाशी अक्षय अजरामर, स्वद्रव्यादिकवंत ॥ प्राणी ॥१॥ वर्ण न गंध न रस नहीं फरस, न दीर्घ ह्रस्व न हुंत ॥ प्राणी
नहीं सूक्ष्म बादर गतवेदी, त्रस थावर न कहत । प्राणी-२ अकोही अमानी अमायो, अलोभी, गुण अनंत भदंत ॥ प्राणी पद्मविजय नित्य सिद्ध स्वामिने, लली लली लली प्रणमंत ॥प्राणी-३
तृतीय श्री आचार्यपद पूजा
दोहा पडिमा वहे वली तप करे, भावना भावे बार । नमिये ते आचार्य ने, जे पाले पंचाचार ॥१॥ ढाल पांचवीं-संभव जिनवर विनति, यह देशी
आचारज त्रीजे पदे, नमिये जे गच्छ घोरी रे ॥ इन्द्रिय तुरंगम वश करे, जे लही ज्ञाननी दोरी रे ॥ आ-१
शुद्ध प्ररुपक गुण थकी, जे जिनवर सम भाख्या रे । छत्रीश छत्रीशी गुणे, शोभित समयमां दाख्या रे ॥ आ.-२
-500