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रंक पण चारित्र ग्रहीने, नृपथी अधिक पूजाई ॥ ते चारित्रपद नित्य वंदू, सुर नर विभु गुण गाई ॥सेवो ॥१॥
निज गुणमें रहे नित्य रमणता, परगुणे दीध दुहाई ॥ तत्त्व-रमण- मूल एहथी, सिद्धि कृद्धि उभराई ॥सेवो ॥२॥
महा रंकने राज ज्यां नमता, त्यां ए पदनी बडाई एक वर्षनी शुभ पर्याये, अनुत्तर सुख अधिकाई ॥सेवो ॥३॥
संवर संयम तत्त्व स्थिरता, खंत्ति मद्दव आई ॥ दश यति धर्म रह्या ज्यां शोभी, ते यतिपद लो बधाई ॥सेवो ॥४॥
सर्व देश भेदे भय भंजे, ते चारित्र सुहाई ॥ जेना माटे खटे खंड त्यागी, त्यागे निज नृपताई ॥सेवो ॥५॥ ___ आत्म कमल निज निर्मल करवा, जो इच्छो तुम भाई ॥ तो ए पद नित्य नित्य पूजिजे, जिनपद लब्धि ध्याई ॥सेवो ॥६॥
॥दोहा।। चारित्र पद संपद् दिये, करे कोटि कल्याण ॥ उस पदको आराध कर, शिवपुर भवि प्रयाण ॥१॥
॥ ढाळ बीजी ॥ (राग-आशावरी-करूं मैं क्या तुम बिन बाग चहार ए चाल) चारित्र एक आधार, जगत में चारित्र एक आधार ॥अंचली। आधार को पा कर पापी ॥ दृढप्रहारी भयो पार ॥ जगत में ॥१॥ छ नर एक नारी का घातक ॥ अर्जुन को दियो तार ॥ जगत में ॥२॥ वेश्या विवशी स्थूल भद्र को ॥ दिखाया स्वर्ग दुवार ॥ जगत में ॥३॥
माता मरुदेवी इस ध्याने ॥ गए झट मोक्ष मोझार ॥ जगत में ॥४॥ भक्त अथें एक दिन पालन से ॥ रंक संप्रति अवतार ॥ जगत में ॥५॥ गुण गातां अति हर्षित होऊं ॥ बदला तस दिल धार ॥ जगत में ॥६॥ आत्म कमल लब्धि विकसावे ॥ चारित्र यह उदार ॥ जगत में ॥७॥
काव्यम् : सर्वोत्तमध्येयपद प्रधानं, सुरासुरेन्द्रैः परिपूजितं यत् ॥ सेवस्व तद्यानवतां हि गोचरं, गुणस्वरुपं शुभ सिद्धचक्रम् ॥१॥ उपजाति वृत्तम् ॥
मंत्रः - ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलादिकं यजामहे स्वाहा
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