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॥दुहा।। सकल सिद्धपुर वासीने, नमो एह जगदीश ॥ सिद्ध नमे सिद्धि मले, वाणी विश्वाविश ॥१॥
॥ ढाळ बीजी ॥ (ओधवजी संदेशो कहेजी मारा श्यामने-ए चाल)
सिद्ध विभु सिद्धिपदना धारी सांभलो, सेवकनां सरे काज वडे तुज साज जो ॥
थाकी गयो हुं भटकी भव वन वासमां, बहार काढो सिरताज गरीब निवाज जो ॥ सिद्ध ॥१॥
आ अपार संसार समुद्रे डूवतो, तारक, दीधो केम मने वीसार जो ॥
तारक विरुद नाथ तमारुं प्रसिद्ध छे, विलंव न करतां निज बिरुद संभार जो ॥सिद्ध॥ २॥
शरणागत हीन उपर करुणा सागरे, करवी घटे नहीं उपेक्षा कोई काल जो ॥
भव अटवीमां भटकुं मृगवालक समो, एकाकी हुं नाथ! जरा ते निहाल जो ॥सिद्ध ॥३॥
आम तैम हुं चक्षु नांखी विलोकतो, अतिभय थी मुझ कांपी रही छे काय जो !
निरालंबी छु तुम विण प्रभु इम जाणीने, भवाटवी थी पार करो सुखदायजो ॥ सिद्ध ॥४॥ सूर्य विना कहो कोण कमल ने प्रबोधतुं ? तेम तुम थी अन्यन मुक्ति दातार जो |
दोष केम आ मानु मारा कर्मनो, अथवा मानुं काल महा हतकार जो ॥ सिद्ध ॥५॥
भव्यता नहीं अथवा तुम भक्ति नहीं, भुवन भूषण ! ते हेतु समजाय जो ॥
कर्मवीर कृपालु मुक्ति आप जो, बीजुं तुम विण शरण नहीं जगमांय जो ॥ सिद्ध ॥६॥
मात तात मुज बंधु स्वामि तुं गुरु,
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