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कर्म खप्याथी अग्यार अतिशय, प्रगटयो महिमा भावो प्रथमा ॥ प्रथम ॥१॥
___ अरिहंत अरुहंत अर्हन एवां, नाम अनेक चित्त ठावो । चार निक्षेपे मोह निकंदे, अति प्रकटित प्रभावो ॥ प्रथम ॥२॥
इलिका भ्रमरी ध्यान घरंती, भजती भ्रमरी भावो ॥ जिनपद ध्यातां राखे जीव पण, जिन थवानो दावो ॥ प्रथम ॥ ३॥
श्री श्रेणिके श्री वीर सेव्या तेथी, लेशे वीर स्वभावो ॥ पद्मनाभ भवमां भवि प्राणी, ते जिन लब्धि सुहावो ॥ प्रथम ॥४॥
॥ दोहा ॥ शासन नायक जगघणी, वीतराग जिनराज ॥ सेवो सुरतरु कामकुंभ, चिंतामणि सुखकाज ॥१॥
जन्म समये अरिहंतना, त्रण लोक उद्योत ॥ नारक पण क्षण सुखिया, तस पुर अन्य खद्योत ॥२॥
॥ ढाल बीजी ॥ (राग बढंस-कोयल टहुक रही मधुवन में-ए देशी) मान आनंद अर्हन पूजनमां, अष्टद्रव्यशुं भक्ति करी रे ॥ए आंकणी॥
दान लाभ भोग उपभोग वीर्य, लहे अनंत पण दोष हरी रे ।। हास्य अरति रति भीति जुगुप्सा, शोक हरी स्थिति उच्च धरी रे ॥मान ।।
काम अज्ञान मिथ्यात्त्व मिटाई, निद्रा अविरति दूर करी रे ॥ राग द्वेष महादोष भयंकर, टाली निजानंद शुद्ध वरी रे ॥ मान ॥२॥
बार गुणे अरिहंत बिराजे, चार अतिशय शुद्ध सही रे ॥ अपाय अपगम ज्ञानातिशय, पूजा वचनातिशये ठरी रे ॥ मान॥३।। वृक्ष अशोक सुर कृत सुम वृष्टि, जय जय घोषे दिव्य ध्वनी रे ॥ शचीगण हर्ष चामर वींझे, सिंहासन नित्य सार्थचरी रे ॥ मान ॥४॥
भामंडल जिन भानु सोहे दुंदुभि गगन नाद भरीरे त्रण छत्र प्रभु शिर पर छाजे एगुण लीला अरिहा शरीरे ॥ मान ॥५॥
अरिहा ध्याने आत्म कमल मां, अखूट लक्ष्मी भंडार भरी रे । लब्धि-सूरि जिनपद झट पामी लहे आनंद शिवसा ठरी रे ||मान॥६॥
काव्यम् : सर्वोत्तम ध्येयपद्प्रधानं, सुरासुरेन्द्रैः परिपूजितं यत् ।। सेवस्व तदध्यानवतां हि गोचरं, गुण स्वरुपं शुभ सिद्धचक्रम् ॥१॥ उपजाति वृत्तम् ॥