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॥ दोहा ॥ महागोप जीवरक्षणे, सार्थवाह भवराण ॥ निर्यामक भव सागरे, माहण मत हणवाण ॥१॥ ए उपमा जस छाजती, चैत्य वृक्ष रहे लार ।। सिंहासन अंतरीक्षमा, रत्नादि गढ सार ॥२॥ धर्म चक्र ध्वज शोभते, वायु वाय सुखदाय । छत्र त्रण जिन ऊपरे चामर दोय ढलाय ॥३॥
वागे गगनमां दुंदुभि, नमे भूप वर पाय विरोधी पण चरणमां, आवी शिर झुकाय ॥४॥
अपाय अपगमसे प्रभु, दे ईत्यादि भगाय ॥ ज्ञानसे संशय हरे, जाणे वस्तु पर्याय ॥५॥
पूजासे सुरवर करे, सेवा होडा होड ॥ वचन से सुर नर तिरि, समझे भाषा फोड ॥६॥
॥ ढाल-बीजी ॥ (जो दिन जो प्रभु के ध्यान में-ए चाल) सेवो री सेवो प्रभु पदपद्म को, अति दुर्लभ जानी । सार में सार यही संसार में, आधार में, उद्धार में
__ भवि साधन मानी ॥सेवो॥ अंचली ॥ स्वर्ण कमल पद ठावे, कांटा उंधा होई जावे ॥ सुगंध जल फूल वरसावे, सेवा एक है अवलंबन, संसारमें, आधारमें, उद्धारमें ॥भवि। सेवो ॥१॥ पक्षी प्रदक्षिणा करते, केश नख नहीं तस वधते ॥
ऋतु अनुकूल अनुसरते, शब्द रुप रस गंधादि प्राकारमें, आधारमें, उद्धारमें ॥भवि। सेवो ॥२॥ नम्र तरुवर सवि होते, चउमुख वचन उचरते ॥
कोटि सुर नित्य अनुसरते, ओगणीश ए मानो ॥ देव प्राकारमें, आधारमें, उद्धारमें ॥भवि॥ सेवो ॥३॥ अशोक सुर सुम वृष्टि, ध्वनि दिव्य चामर सृष्टि । आपे नाद दुंदुभि हृष्टि, छत्र भामंडल सिंहासन ॥
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