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॥ दोहा ॥ रोग रहित निर्मल तनु, पद्म सुगंधित श्वास । आहार निहार न देखता, चर्म चक्षु पति खास ॥१॥
मांस रुधिर गोदुग्ध सम, मूल अतिशय चार । नीचे के भवि जाणीये, कर्म क्षये अगिआर ॥२॥
कोटाकोटी सूर नर, आदि सर्व समाय ॥ जिनकी जोजन भूमिमें, वाणी सार्थ समजाय ॥३॥
भामंडल मस्तक पीछे, शोभे तेज प्रधान ॥ प्रभुमुख दर्शन कारणे, करे देव निर्माण ॥४॥
दुकाल भीति ईति रोग, मारी वैर महान ॥
अति वृष्टि अवृष्टि न, सवासो जोजन मान ॥५॥ (कानूडा तारी कामण करनारी व्रजमां वांसलडी वागी-ए चाल)
अर्हन प्रभु अद्भुत आनंद करनारा, छोड नहीं देव दूजा धारा ॥ निरागी जग में देव तुमे प्यारा, छोड नहीं देव दूजा धारा ॥ अंचली ।
अष्टादश दूषण दुःखदायी, प्रथम तुमे जारा ॥ मैं चाहूं, मैं चाहं अहोनिश दर्श प्रभु थारा ॥
छोड नहीं सरागी को धारा ॥अर्हन् ॥१॥ बारा गुणसे शोभित जगमें, महिमा तुज भारा ॥ गुण गाया, गुण गाया, उसका सार्थक जन्मारा ॥
छोड नहीं सरागी को धारा ॥अर्हन ॥२॥ जन्म समय श्री जिनके होवे, त्रिलोक उजारा ॥ सुर रचते, सुर रचते, भावे समोसरण सारा ॥
छोड नहीं सरागी को धारा ॥अर्हन ॥३॥ चार मुख से देते देशना, भविजन गुणकारा ॥ प्रभु सेवे, प्रभु सेवे हटे तस दुर्गति का द्वारा ॥ ___ छोड नहीं सरागीको धारा ॥अर्हन ॥४॥ आतम आनंदको लेवा, प्रभु चरण कमल प्यारा ॥ जो पावे, जो पावे, होय सो लब्धि-हृदय हारा ॥
छोड नहीं सरागी को धारा ॥ अर्हन ॥५॥
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