Book Title: Nav Padarth
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ है पृ० ७३; ८. धर्म, अधर्म, आकाश विस्तीर्ण निष्क्रिय द्रव्य है पृ० ७४; ६. धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण और पर्याय पृ० ७६; १०. धर्मास्तिकाय के स्कंध देश, प्रदेश-भेद पृ० ७६; ११. धर्मास्तिकाय विस्तृत द्रव्य पृ० ८१; १२. धर्मास्तिकाय आदि के माप के आधार परमाण है पृ० ८१; १३. धर्मादि की प्रदेश-संख्या पृ० ८२; १४. काल द्रव्य का स्वरूप पृ० ८३-काल अरूपी अजीव द्रव्य है : काल के अनन्त द्रव्य है : काल निरन्तर उत्पन्न होता रहा है : वर्तमान काल एक समय रूप है; १५. काल द्रव्य शाश्वत-अशाश्वत कैसे ? पृ० ८६; १६. काल का क्षेत्र पृ० ८७; १७. काल के स्कंध आदि भेद नहीं हैं पृ० ८६; १८. आगे देखिए टिप्पणी २१ पृ० ६१; १६. काल के भेद पृ० ६१; २०. अनन्त काल-चक्र का पुद्गल परावर्त होता है पृ० ६३; २१. काल का क्षेत्र प्रमाण पृ० ६३: २२. काल की अनन्त पर्यायें और समय अनन्त कैसे ? पृ० ६४; २३. रूपी पुद्गल पृ० ६४; २. पुद्गल के चार भेद पृ० ६७; २५. पुद्गल का उत्कृष्ट और जघन्य स्कंध पृ० १०२, २६-२७. लोक में पुद्गल सर्वत्र हैं। वे गतिशील हैं पृ० १०४; २८-पुद्गल के चारों भेदो की स्थिति पृ० १०४; २६- स्कंधादि रूप पुद्गलो की अनन्त पर्यायें पृ० १०५; ३० पौद्गलिक वस्तुएं विनाशशील होती हैं पृ० १०५; ३१. भाव पुद्गल के उहारण पृ० १०६-आठ कर्म : पाँच शरीर : छाया, धूप, प्रभा-कान्ति, अन्धकार, उद्योत आदि : उत्तराध्ययन के क्रम से शब्दादि पुदगल-परिणामों का स्वरूप : घट, पट, वस्त्र, शस्त्र भोजन और विकृतियाँ; ३२. पुद्गल विषयक सिद्धान्त पृ० ११५; ३३. पुद्गल शाश्वत-अशाश्वत पृ० १२६; ३४. षद्रव्य समास में पृ० १२७; ३५ . जीव और धर्मादि द्रव्यों के उपकार पृ० १२८; ३६. साधर्म्य वैधर्म्य पृ० १२६; ३७. लोक और अलोक का विभाजन पृ० १३०; ३८. मोक्ष-मार्ग में द्रव्यों का विवेचन क्यों ? पृ० १३२) ३. पुण्य पदार्थ (ढाल : १) पृ० १३३-१७९ पुण्य और लौकिक दृष्टि (दो० १): पुण्य और ज्ञानी की दृष्टि (दो० २); विनाशशील और रोगोत्पन्न सुख (दो० ३-४); पुण्य कर्म है अतः हेय है (दो० ५); पुण्य की परिभाषा (गा० १); आठ कर्मों में पुण्य कितने ? (गा० २): पुण्य की अनन्त पयायें (गा० ३); पुण्य का बन्ध : निरवद्य योग से (गा० ४); सातावेदनीय कर्म (गा० ५); शुभ आयुष्य कर्म : उसके तीन भेद (गा० ६)देवायुष्य, मनुष्यायुष्य, तिर्यञ्चायुष्य (गा० ७); शुभ नाम कर्म : उसके ३७ भेद (गा० ८-२६); उच्चगोत्र कर्म (गा० ३०-३१): पुण्य कर्मों के नाम

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